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पञ्चम दियद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलड्डार, गुण एवं दोष
गन्धेभविभ्राजित धाम लक्ष्मीलीला म्वुजच्छत्रमपास्य राज्यम्। क्रीडागिरौ रैवतके तपांसि श्रीनेमिन्नाथोऽत्र चिरं चकार।।
इस श्लोक में चारुता प्रत्यायक 'गन्ध' शब्द के साथ अन्य सुन्दर पद 'इभ' लीलाम्बुज शब्द के साथ 'छत्र' और क्रीडा शब्द के साथ 'गिरौं' शब्द अर्थ में चारुता का आधान करते हैं। अतः उसमें औदार्य नामक गुण है।
समता और कान्ति
अविषमता (अनुकूलता) समता हैं तथा रचन
की
रचना की उज्ज्वलता कान्ति।२
समता, यथा
कुचकलशविसारिस्फारलावण्यधारामनुवदति यदंगासंगिनी हारवल्ली। असदृशमहिमानं तामनन्योपमेयां कथय कथमहं ते चेतसि व्यञ्जयामि।।३
यहाँ पर 'कुच' के साथ 'कलश' विसारि के साथ स्फार आदि अविषम पदों का प्रयोग होने से समता गुण है।
कान्ति यथा
फलैः क्लप्ताहारः प्रथममपि निर्गत्य सदनाद्यनासक्तः सौख्ये क्वचिदपि पुरा जन्मनि कृती। तपस्मन्नश्रान्तं ननु वनभुवि श्रीफलदलैखण्डैः खण्डेन्दोश्चिरमकृत पादार्चमनसौ।।"