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पञ्चम सरिरलेट : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलवार, गुण एवं दोष
गुण एवं दोष En
प्रसंग को दूर कर दिया है और नायक की वीतरागिता को उनकी आसक्ति की अपेक्षा अधिक उभारा है। उनके लिए बैषयिक सुख विषतुल्य है
तनोषि तत्तेषु न किं प्रसाद, न सांयुगीनायदमीत्वयीश। स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः, श्रोयेत शूरैरपि तत्र साम।।२
और उचित उपचारों ।
वह "अवक्रमित" से काम में प्रवृत्त होते हैं से विषयों को भोगते है
त्रिरात्रमेव भगवानतीत्यानिरुद्धपित्रानुपरूद्धाचित्तः। ततस्तृतीयोऽपिपुमर्थसारे, प्रावर्ततावक्रमतिः ऋमज्ञः।। भोगाहं कर्म ध्रुव वेद्यमन्य-जन्मार्जितं स्वं सविमुविवुध्य।
मुक्त्येक कामोप्युचितोपचारैरभुक्त ताव्यां विषयानसक्तः।।३ इस तरह जैनकुमारसम्भव के विविध प्रसंगों में शृङ्गार रस का वर्णन किया गया है। ऋषभदेव के विवाहार्थ जाते समय पति का स्पर्श पाकर, किसी देवांगना की मैथुनेच्छा सहसा जागृत हो जाती है तथा भावोच्छवास में उसकी कञ्चकी टूट जाती है। वह काम वेग के कारण असहाय हो जाती है। फलस्वरूप वह अपनी इच्छापूर्ति हेतु प्रियतम की चाटुकारिता करने लगती है
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