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पञ्चम अहिररोट : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलवार, गुण एवं दोष
उपात्त्याणिस्त्रिदशन वल्लभा श्रमाकुलाकाचिदुदंचिकंचुका।
बृषस्यया चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्यविघ्नताम्।।
एक अन्य स्थान पर स्वामी ऋषभदेव को देखने के लिए पुरनारियों में एक स्त्री के वर्णन प्रसंग में उसकी काम के प्रति औत्सुक्य की तीव्रता एवं अधीरता तथा आत्मविस्मृति को इस प्रकार दर्शाया गया है
कापि नार्धयमितश्लथनीवी प्रसरन्निवसनापि ललज्जे नायकानननिवेशितनेत्रे जन्यलोकनिकरेऽपि समेता।।१५
देवदम्पत्तियों को रति के लिए कुचक्रादि के लतागृहों का निर्माण आदर्श परिवेश समुपस्थित करता है और अस्ताचल पर्वत की रजत शिलाएं संभोग केलि में मानिनियों को मान त्यागने के लिए विकल कर देती है। श्री जयशेखर सूरि ने रति के सोपान रूप में पर्वतीय नीरवता का समुचित उपयोग किया है
तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छदा, व्यधत्तयन्तारशिला विलासिनाम्। रतिक्षणा लम्बितरोषमानिनी स्मयग्रहग्रन्थिभिदे सहायताम्।।६
श्री जयशेखर सूरि ने अपने महाकाव्य में वात्सल्य, भयानक, वीभत्स हास्य तथा शान्त रसों का आनुषंगिक रूप में पल्लवन किया है। शिशु ऋषभदेव की तुतली वाणी, लड़खड़ाती गति अकारण ही लोगों को हँसने