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पञ्चम तिमेद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
अश्रुवैस्वर्यमित्यष्टौ, स्तम्भोऽस्मिन्निष्क्रियाङ्गता। प्रलयो नष्टसंज्ञत्वम् शेषाः सुव्यक्तलक्षणाः"
अर्थात् स्तम्भ, प्रलय रोमाञ्च, स्वेद वैवर्ण्य वेपथु, अश्रु तथा वस्वर्य इनमें अंगो का निष्क्रिय होना स्तम्भ है, चेतना का नष्ट होना प्रलय।
(च) व्यभिचारी भाव
"विशेषादाभिमुख्येन चरन्ती व्यभिचारिणः।
स्थायिन्युन्मग्न निर्मग्नाः कल्लोला इव वारिधौ।। अर्थात् विविध प्रकार से स्थायीभाव के अभिमुख या अनुकूल चलने वाले भाव व्यभिचारी भाव कहलाते है; जो स्थायी भाव में इसी प्रकार प्रकट होकर विलीन होते रहते है, जिस प्रकार सागर में तरङ्गे। व्यभिचारीभाव ३३ प्रकार के है
"निर्वेदग्लानिशङ्काश्रमधृति जडताहर्षदैन्यौग्रयचिन्ता, स्त्रासेामर्षगर्वाः स्मृतिमरणमदाः सुप्तनिद्राविवोधाः,। व्रीडापस्मार मोहाः सुमतिरलसतावेगतर्कावहित्था,
व्याध्युन्मादौविषादोत्सुकचपलयुतास्त्रिंशदेत त्रयश्च।।" अर्थात् निर्वेद, ग्लानि शङ्का, श्रम, धृति, जडता, हर्ष, दैन्य, औग्रय, चिन्ता, त्रास, ईर्ष्या, अमर्ष, गर्व, स्मृति, मरण, मद, सुप्त, निद्रा, विवोध, ब्रीडा, अपस्मार, मोह, सुमति, अलसता, वेग, तर्क, अवहित्था, व्याधि, उन्माद, विषाद, औत्सुक्य तथा चपलता आदि व्यभिचारी भाव ३३ प्रकार के है।
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