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चतुर्थ, परिच्छेद : पात्रों का विवेचन
कर्ण गुरुवचन सुनने के लिए, मुख सत्यवचन वोलने के लिए, हृदय में पति भक्ति भाव लिए हुए, हाथ याचकों को दान देने के लिए है इस प्रकार के आभूषणों को ब्रह्मा ने स्त्री के लिए वताया है
श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये, सुनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः दानमर्थिषु करे रमणीना- मेष भूषण विधिविधि दत्तः।।
स्त्री को चंचलता त्यागने का उपदेश देती हुई कहती हैं
सुभ्रुवा सहजसिद्धमपास्यं, चापलं प्रसवसद्मः विपत्तेः। ये कूलकविनाश्मनिपाता-द्वीचर्योऽनुधिभुवोऽपिविशीर्णा।
अर्थात् चञ्चलता कुल का विनाशक है।
इसी विषय में आगे कहती है
चापलेऽपिकूलमूनि पताका, तिष्ठतीहृदि मास्म निधत्तम्। प्राप सापि वसतिं जनबाह्यां, दंड संघटनया दृढवद्धा ।।
जो स्त्री औचित्य गुणों से युक्त होकर पतिभक्ति से अपने पति को अपने वश में कर लेती है उस मृग के तुल्य नेत्रों वाली स्त्री की जड़ीबूटी तथा मन्त्र-तन्त्र किस काम का है सभी भ्रमस्वरूप है
"अस्ति संवननमात्मवशं चे-दौचिती परिचिता- पतिभक्ति मूलमन्त्र मणिभिर्मुनेत्रा-स्तद्धमन्ति किमु विभ्रमभाजः।"