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जैनकुमारसम्भव में रस विवेचनरस क्या है?
नाट्य शास्त्र में भरत ने सर्वप्रथम रस को ब्रह्मानन्द स्वरूप मानते हुए कहते है
"रसो वै ब्रह्म।"
अर्थात् रस ब्रह्मानन्द स्वरूप है।
रस भारतीय साहित्य का प्राणिधायक तत्त्व है और सम्पूर्ण भारतीय साहित्य रस पर आधृत है।
आचार्य भरत ने रस को एक सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत किया है जिसे रस सूत्र कहा जाता है
"विभावानुभावव्यभिचारी संयोगाद् रस निष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों के संयोग से व्यक्त होने वाले स्थायिभाव को रस कहते है।
उपर्युक्त ‘रससूत्र' की व्याख्या में उत्तरवर्ती आचार्यों ने १. उत्पत्तिवाद २. अनुमितिवाद ३. भुक्तिवाद ४. अभिव्यक्तिवाद इन चार सिद्धान्तों का प्रणयन किया, जिसके प्रणयनकर्ता क्रमशः भट्टलोल्लट, आचार्य शंकुक, आचार्य भट्टनायक और आचार्य अभिनवगुप्त हैं। इन सिद्धान्तों की व्याख्या यहाँ अप्रासंगिक है। आचार्य भरत ने रसों की संख्या को अपने ग्रन्थ में निम्न प्रकार से निर्दिष्ट किया है