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द्वितीय परिरण्ट : जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियॉ तथा
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं।
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के अनेक राजवंश प्राय: अक्षत्रिय वर्ग के थे। उत्तर भारत में थानेश्वर के पुष्यभूति वैष्य थे। बंगाल के पाल और सेन शूद्र थे। कन्नौज के गुर्जनप्रतिहार विदेशी थे जो पीछे क्षत्रिय बनाये गये थे। इसी तरह परमार और चौहान भी थे। तात्पर्य यह कि क्षत्रिय वर्ग में अनेक तत्त्वों का संमिश्रण हो रहा था। सामान्य क्षत्रिय व्यापार कर वैश्यवृत्ति धारण कर रहे थे और धार्मिक दृष्टि से वे किसी एक धर्म के मानने वाले न थे तथा पश्चिम और दक्षिण भारत में बहुसंख्यक जैनधर्मावलम्बी भी हो गये थे।
इस काल में वैश्यवर्ग में भी नूतन रक्त संचार हुआ। छठी शताब्दी के लगभग वे जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण कृषि कर्म छोड़ चुके थे क्योंकि उत्तर भारत में उस समय कृषकों की अपेक्षा व्यापारिक वर्ग सम्माननीय समझा जाता था। इस काल में अनेक क्षत्रिय वैश्यवृत्ति स्वीकार करने लगे थे। कई जैन स्रोत्रों से मालूम होता है कि कुछ क्षत्रिय अहिंसा के प्रभाव से शस्त्र जीविका बदलकर व्यापार और लेन-देन वृत्ति करने लगे थे। इस युग में वैश्य लोग अनेक जातियों और उपजातियों में बंट गये थे। इस काल का जैन धर्म अधिकांशत व्यापारिक वर्ग के हाँथ में था। दक्षिण भारत में जैनधर्मानुयायों में अब भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं पर प्रायः सभी व्यापार वृत्ति करते हैं। दक्षिण और पश्चिम भारत में धनिक व्यापारिक वर्ग के संरक्षण में जैन धर्म बड़ा ही फूला-फला। अनेक जैन वैश्यों को राज्य कार्यों में सक्रिय सहयोग देने का अवसर मिला था और वे राज्य के छोटे-बड़े अधिकार पदों पर सुशोभित