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तृतीय पूरि
जैनकुमारसम्भव की कथा का मूल, कथा वस्तु तथा उस पर प्रभाव
प्रसंगों की स्पष्ट प्रतिध्वनि ब्राह्मण पुराणों में सुनाई देती है। स्वामी द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अभिषिक्त करके प्रव्रज्या ग्रहण करने, पुलडा के आश्रम में उनकी तपश्चर्या, भरत के नाम के आधार पर देश का भारतवर्ष नामकरण इत्यादि ऋषभदेव के जीवनवृत्त की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की आवृत्ति लगभग समान शब्दावली में कई पुराणों में हुई है।२६
श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव का जन्म भगवान यज्ञ पुरुष के अनुग्रह का फल था, फलस्वरूप वे स्वयं सन्तानहीन नाभि के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। आकर्षक शरीर, विपुलकीर्ति, ऐश्वर्य आदि गुणों के कारण ऋषभ (श्रेष्ठ) नाम से विख्यात हुए। गार्हस्थ्य धर्म का प्रवर्तन करने के लिए उन्होंने स्वर्गाधिपति इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया और श्रोत तथा स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान करते हुए उससे सौ पुत्र उत्पन्न हुए। जिसमें महायोगी भरत ज्येष्ठ थे उन्हीं के नाम पर 'अजनाभ-खण्ड' भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऋषभदेव के जीवनवृत्त के दो मुख्य स्रोत हैं- "जिनसेन ' का आदिपुराण (नवीं शताब्दी) तथा हेमचन्द्र का त्रिषष्ठिशलाका पुरुष (बारहवीं शती)।
आदि पुराण का प्रभाव
जिनसेन के आदिपुराण से भी जैनकुमारसम्भव प्रभावित है। जिनसेन द्वारा चार विशाल पर्वो (१२-१५) में जिनेन्द्र के सम्पूर्ण चरित का मनोयोग पूर्वक निरूपण किया गया है। आदिपुराण का यह प्रकरण विद्वता