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नायक
किसी महाकाव्य का नायक वह मूल व्यक्तित्व होता है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण कथा चक्कर लगाती रहती है और फलागम की प्राप्ति हेतु सतत प्रयत्नशील रहती है। वस्तुतः नायक के अभाव में महाकाव्य की परिकल्पना तक नहीं की जा सकती। अनेक अलङ्कारिकों ने अपने-अपने महाकाव्य स्वरूप निर्धारण ने नायक के अभ्युन्नति को महाकाव्य को प्रमुख तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' और आचार्य दण्डी ने 'काव्यादर्श' में इस सन्दर्भ का स्पष्ट उल्लेख किया है। जिसमें साहित्यदर्पण के अनुसार महाकाव्य का नायक धीरोदात्तादि गुणों से युक्त सद्वंश क्षत्रिय या देव होता है ।
संस्कृत के प्रापणार्थक अर्थात् (नी + ण्वुल) नी धातु में ण्वुल प्रत्यय के योग से नायक शब्द और णिच् प्रत्यय जोड़ने से नेता शब्द की व्युत्पत्ति होती है।
नायक कौन है? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य विश्वनाथ कहते हैं?— नायक वह है जो त्यागी, महान कार्यों का कर्ता बुद्धि वैभव से सम्पन्न रूप यौवन और उत्साह से परिपूर्ण निरन्तर उद्यमशील, जनता का स्नेह भाजन और तेजस्वरूप तथा सुशीलवान हो । यही बात दशरूपक में भी कहा गया है