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चतुर्थ अतिरछेद : पात्रों का विवेचन
पुरा परारोहपरा भवस्या,वश्याः कशाकष्टमदृष्टवन्तः बबन्धिरेऽनेन वलात्-कुरंगा इवोल्ललसन्तः शिशुना तुरङ्गाः।।
भगवान ऋषभदेव का यथार्थ निरूपण करना वृहस्पति के लिए भी सम्भव नहीं था
"रुपसिद्धिमपि वर्णयितु ते लक्षणकार न वाक्पतिरीशः"
(२) स्वामी जी मृदुभाषी थे। उनकी वाणी के माधुर्य के सम्मुख अमृत
नीरस प्रतीत होता था। ब्रह्मा ने चन्द्रमा का समूचा सार (अमृत) उनकी वाणी में समाहित कर दिया था
वैधवं ननु विधि.....
सारमत्र सकलं भवद्गिरि।
पूणिमोपचितदेहमन्यथा, तं कथं व्यथयति क्षमा मयः।।
(३) स्वामी जी प्रतिभावान तथा दानी थे। उनके अविराम औदार्य के
कारण कल्पवृक्ष की दान वृत्ति अर्थहीन हो गयी थी। वे अनुपम यशस्वी थे। उनकी कीर्ति का पान करके देवगण अमृत के माधुर्य को भूल जाते थे