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द्वितीय परिच्छेद : जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियों तथा
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियों एवं प्रेरणाएं,
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काव्य निर्माण की दृष्टि से सामन्तभद्र ने सर्वप्रथम द्वितीय शताब्दी में स्तुतिकाव्य का सृजन किया और जैनों के मध्य संस्कृत भाषा में जैनकाव्य परम्परा का श्रीगणेश किया। अतः स्पष्ट है कि द्वितीय शताब्दी से प्रारम्भ होकर अट्ठारहवीं शती तक संस्कृत भाषा में जैन काव्य की परम्परा अविराम से चलती रही। संस्कृत काव्य के विकास काल में जैन कवियों ने जितने काव्य-ग्रन्थों का प्रणयन किया है, उससे कई गुने अधिक काव्यों की रचना ह्रासोन्मुख काल में किये गये है, यह उनकी परम विशेषता है।
इस तरह हम देखते है कि वाण की कादम्बरी की शैली पर धनपाल ने 'तिलकमञ्जरी' और ओऽयदेव वादीभसिंह ने 'गद्यचिन्तामणि', 'किरातार्जुनीय'
और 'शिशुपाल' की शैली पर हरिचन्द्र ने 'धर्मशर्माभ्युदय और मुनिाभद्रसूरि ने 'शान्तिनाथ चरित' और वस्तुपाल ने 'नरनारायणानन्द' और जिनपाल उपाध्यान ने सनत्कुमार चरित, जैसे प्रौढ़ काव्यों की रचना की। इसी प्रकार महाकवि कालिदास के कुमारसम्भव से प्रेरणा ग्रहण कर कवि जयशेखर सूरि ने अपने महाकाव्य 'जैनकुमारसम्भव' का प्रणयन किया है।
यह रीतिबद्ध शास्त्रीय महाकाव्यों की रचना के पीछे कालिदास, शारवि, बाण आदि महाकवियों की समकक्षता प्राप्त करने या वैसा ही यश प्राप्त करने या विद्वत्ता प्रदर्शन की भावना दृष्टिगत होती है।
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