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द्वितीय परिच्छेट: जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियाँ तथा
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं
साधु और गृहस्थ वर्ग अपनी विद्या-विषयक समृद्धि बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान देने लगे। जैन सिद्धान्त के अध्ययन के बाद अन्य दार्शनिक साहित्य का तथा व्याकरण, काव्य, अलङ्कार, छन्दशास्त्र और ज्योतिःशास्त्र आदि सार्वजनिक साहित्य का भी विशेष रूप से आकलन होने लगा और इस विषय के नये-नये ग्रन्थ रचे जाने लगे।
(ग) सामाजिक परिस्थितियाँ
__ हमारे इस आलोच्य युग के पूर्वमध्य काल में सामाजिक स्तब्धता धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। भारतीय समाज जाति प्रथा से जकड़ता जा रहा था और धार्मिक तथा रीति-रिवाज के बन्धन दृढ़ होते जा रहे थे। उत्तरमध्यकाल आते-आते समाज अनेकों जातियों और उपजातियों में विभाजित होने लगा। धीरे-धीरे प्रगतिशील और समन्वय एवं सहिष्णुता के स्थान पर स्थिर रूढिवाद और कठोरता ने पैर जमा लिए। समाज में तन्त्र-मन्त्र टोना-टोटका, शकुन, मुहूर्त आदि अंधविश्वास अशिक्षित और शिक्षित दोनों में घर कर गये थे। धार्मिक क्षेत्र तथा सामाजिक क्षेत्र में उत्तरोत्तर भेदभाव बढ़ता जा रहा था। क्रिया काण्ड और शुद्धि-अशुद्धि के कारण ब्राह्मण वर्ग में छूआछूत का विचार बढ़ रहा था। जातियों के उपजातियों में विभक्त होने से उनमें खान-पान रोटी-वेटी का सम्बन्ध बन्द हो रहा था। क्षत्रिय
और वैश्य वर्ग में भी इन नये परिवर्तनों का प्रभाव पड़ने लगा था। क्षत्रिय वर्ग के राजवंशों से शासन कार्य प्रायः छिन रहा था। इस काल