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द्वितीय परिच्छेट.: जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियाँ तथा
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं,
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अपनी गच्छीय प्रतिष्ठा और साहित्य-निर्माण में करते थे। काल की दृष्टि से पांचवी से दशवीं शताब्दी तक काव्यग्रन्थों का निर्माण उतनी तीव्र गति और प्रचुर मात्रा में नहीं हुआ जितनी कि ग्यारहवीं से चौदहवी शताब्दी तक। दसवी शताब्दी के पूर्व यदि कई विशाल एवं प्रतिनिधि रचनाएँ लिखी गई थी, तो दसवीं शताब्दी के बाद तीन सौ वर्षों में यह संख्या बढ़कर सैकड़ों के तादाद तक पहुंच गई। जैन विद्वानों में मानों उस समय कथासाहित्य (प्राकृत में कथा और काव्य एक अर्थ में प्रयुक्त हुए है) की रचना करने में परस्पर बड़ी स्पर्धा हो रही थी। अमुक गच्छवाले अमुक विद्वान् ने अमुक नाम का कथाग्रंथ बनाया है यह जानकर या पढ़कर दूसरे गच्छ वाले विद्वान् भी इस प्रकार के दूसरे कथाग्रन्थ बनाने में उत्सुक होते थे। इस रीति से चन्द्रगच्छ, नागेन्द्रगच्छ, राजगच्छ, चैत्रगच्छ, पूर्णतल्लगच्छ, वृद्धगच्छ, धर्मघोषगच्छ, हर्षपुरीयगच्छ आदि विभिन्न गच्छ, जो कि इन शताब्दियों में विशेष प्रसिद्धि पाये थे और प्रभावशाली बने थे। इन प्रत्येक गच्छ के विशिष्ट विद्वानों ने इस प्रकार के कथा ग्रन्थों की रचना करने के लिए सबल प्रयत्न किये। इस युग में एक ही पीढ़ी के विभिन्न गच्छीय दो-दो तीन-तीन विद्वानों ने तिरसठ शलाका महापुरुषों के चरित्रों तथा व्रत मंत्र, पर्व, तीर्थमाहात्म्य प्रसंगों को लेकर एक ही नाम की दोदो, तीन-तीन रचनाएँ लिखीं। लोककथा, नीतिकथा, परीकथा तथा पशु-पक्षी आदि हजारों कथाओं को लेकर इन्होंने विशालकाय कथाकोष ग्रन्थ भी लिखे।
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