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प्रथम अहिरट : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व
होता है। इसमें चतुर्वग प्राप्ति के सन्दर्भ में मोक्ष प्राप्ति, तथा रसभाव की योजना सूत्र सम्बिधान, नगर, दूत-प्रयाण, रतोत्सव, आवास आदि का वर्णन यथा स्थान किया गया है। अतः इसे महाकाव्य कहा जा सकता है। जैनकुमारसम्भव की कथा
अयोध्या के राजा नाभिराय और रानी मरुदेवी के पुत्र ऋषभदेव ने जन्म के उपरान्त मनोहर वाल सुलभ क्रीड़ाओं को करते हुए योवन को धारण किया। तुम्बरू और नारद नामक दो देवऋषियों द्वारा इनके जन्म लेने की बात सुनकर इन्द्र को इनके विवाह की चिन्ता हुई। ऋषभदेव द्वारा विवाह के विषय में मौन धारण करने पर इन्द्र ने 'मौनंस्वीकृतिलक्षणं' इस आधार उनके विवाह की तैयारियाँ कर दी और इन्द्र ने इनकी प्रशंसा करते हुए, विवाह मण्डप को सजाया। देवियों ने दो कन्याओं सुमंगला और सुनन्दा का शृंगार किया। विवाह के अवसर पर देवताओं ने नृत्य किया। ऋषभदेव तथा सुमंगला-सुनन्दा को पति-पत्नी के सम्बन्धों की शिक्षा दी गयी। इस प्रकार शीलवती सुमंगला गर्भवती हो जाती हैं। एक दिन सुमंगला रात्रि में चौदह स्वप्न देखती है और वह उनके फलों को जानने हेतु उत्कण्ठित हाती है अपनी इस उत्कण्ठा के समाधान हेतु वह प्रभु (ऋषभदेव) के वासगृह में आती हैं और स्त्रीबुद्धि की निन्दा करते हुए प्रभु से उन स्वप्नों के विषय में पूछती है। श्री ऋषभदेव सुमंगला को एक-एक स्वप्नों का फल वताते है, जिसे सुनकर सुमंगला अत्यन्त हर्षित होती है और वह प्रभु का यशोगान करती है। सुमंगला अपने वासगृह में लौट जाती है और समूचे वृत्तात को