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प्रथम मसिद: जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद्भविष्यति।।५४
न तच्छुतं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। न स योगो न तत्कर्म यन्नाट्योस्मिन्न दृश्यते।।५५
किन्तु काव्य भेद से नाटक 'दृश्य' काव्य है और इसे काव्य से अलग नहीं किया जा सकता। इसके समर्थन में 'रसगंगाधर' में पण्डितराज जगन्नाथ और काव्य मीमांसा में राजशेखर ने अपना मत व्यक्त किया है। इस विषय में आचार्य भामह ने जहाँ एक ओर
स्वादु काव्यरसोन्मिश्रृं शास्त्रमप्युयुन्जते। प्रथमालीढमद्यवः पिबन्ति कटु भेषजम्।।५६ न स शब्दों न तद् वाच्यं न स न्यासो न सा कला। जायते यन्न काव्याङ्गमाहोभारो महान कोः।।५७
पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की प्राप्ति हेतु सत्काव्य रचना का आग्रह किया है। वहीं दूसरी ओर
'धर्मार्थ काम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च। प्रीतिं करोति कीर्तिं च साधुकाव्य निबन्धनम्॥५८
समस्त कलाओं में सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया है और इसके महत्त्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
मानव जीवन में धर्म, सत्य, अहिंसा और सदाचरण का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है, क्योंकि ये श्रेष्ठ जीवन के विकास में न केवल सहायक