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प्रथम परिच्छेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
और 'महतांच महच्च यत्' कहकर उसकी विराट आन्तरिक महत्ता की ओर संकेत किया है। उन्होने महाकाव्य के वाह्य शरीर सम्बन्धी लक्षणों को न तो आवश्यक वताया है और नही उसे सूची रूप में उपस्थित ही किया है यथा न सर्गों की सं०, न वर्ण्य विषयों की सूची, न नायक या पात्रों के गुणों की सूची न छन्द और काव्यरम्भ की आवश्यक वातें- आशीर्वाद- नमस्क्रिया और वस्तुनिर्देश आदि।१९
आगे के आचार्यों ने भामह प्रोक्त महाकाव्य लक्षण में यत्र-तत्र परिवर्तन करके उसे ही स्वीकार किया है। आचार्य दण्डी ने महाकाव्य का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया है- महाकाव्य सर्गबन्ध रचना है। उसके आरम्भ में आशीर्वचन, स्तुति या नमस्कार एवं कथावस्तु का निर्देश होता है। वह कथावस्तु ऐतिहासिक या सज्जन के सत्य जीवन पर आश्रित होती है इसमें उदात्तादि गुणों से युक्त चतुर नायक की चतुर्वर्ग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का वर्णन होता है। उसमें नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, चन्द्रोदय, सूर्योदय, उद्यान आदि का वर्णन होता है। क्रीड़ा, मधुपान, रतोत्सव वर्णन, विप्रलम्भ शृंगार, विवाह, और कुमार जन्म मन्त्रदूत, प्रयाण और नायकाभ्युदयआदिवर्णनों से वह युक्त होता है। महाकाव्य अलंकृत, विस्तृत और रस भावादि से सम्बन्धित होता है। उसके सर्ग अतिवित्रीण न हो, उसकी कथा श्रव्यवृत्तों एवं सन्ध्यादि अङ्गों से गठित होनी चाहिए। सर्गान्त में छन्द परिवर्तन होना चाहिए। उपर्युक्त गुणों से युक्त महाकाव्य लोकरंजक और कल्पान्त स्थायी होता है।१२० ।
आगे के आचार्यो ने दण्डी के लक्षणों में से ही कुछ घटा-बढ़ाकर अपने महाकाव्य के लक्षणों का निर्माण किया। उनमें अग्निपुराण, हेमचन्द्र,
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