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प्रथम छेद: जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
६ व्यायोग
'वि+आङ् उपसर्ग पूर्वक युज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगाकर व्यायोग पद निष्पन्न होता है। व्यायोग पद की अन्वर्थकता पर प्रकाश डालते हुए अभिनवगुप्त कहते है - झगड़े में जहाँ अनेक पुरुष लड़ते हैं, वाहु-युद्ध आदि करते हैं उसे व्यायोग कहा जाता है । १०३
धनिक के अनुसार व्यायोग की उत्पत्ति है- “जिसमें अनेक पुरुष प्रयुक्त हों९०४, इस व्युत्पत्ति में व्यायोग की नायक बहुलता पर प्रकाश डालती है। नाट्य दर्पणकार के व्यायोग पद के निर्वचन के अनुसार जिसमें विशेष रूप से सब ओर से नायक युक्त होते है। अर्थात् कार्य करने के लिए प्रयत्न करते है, वह व्यायोग कहलाता है।
७. समवकार
सम+अव उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'घञ्' प्रत्यय जोड़कर 'समवकार' पद का निर्वचन होता है। नाट्य दर्पणकार कृत समवकार पद के निर्वचन के अनुसार कहीं मिले और कहीं विखरे हुए त्रिवर्ग के पूर्व प्रसिद्ध उपायों द्वारा जिसको किया या निवद्ध किया जाता है, वह 'समवकार' होता है । २०५
विश्वनाथ तथा धनिक के अनुसार इसमें (समवकार में) काव्य के प्रयोजन विकीर्ण किये जाते है अर्थात् छिटकाएं जाते है । १०६ अतः उसे समवकार कहते है यहाँ स्पष्ट है कि आचार्यद्वय समवकार को 'कृ' (विक्षेप) धातु से निष्पन्न किया मानते हैं।
८. बीथी
'विथ पाचने' धातु से 'इन्' तथा 'ङ्गीप' प्रत्यय जोड़कर 'वीथी शब्द
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