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३. शम्पा
४.
५.
रासक
स्कन्धक
प्रथम छेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
अजय
भामह ने रूपको में केवल नाटक को उल्लिखित किया है।
नाट्य स्वरूप
धनञ्जय, विद्यानाथ तथा श्रीकृष्ण कवि आदि ने अवस्था की अनुकृति (अनुकरण) को नाट्य कहा है। इसकी विशद व्याख्या करते हुए धनिक ने कहा है। काव्य अथवा नाट्य में वर्णित धीरोदात्त, धीरललित, धीरोद्धत तथा धीर प्रशान्त प्रकृति के नायकों तथा ( अन्य पात्रों) की अवस्थाओं का आंगिक, वाचिक, सात्विक तथा आहार्य- इन चार प्रकार के अभिनयों से जो अनुकरण किया जाता है, उसी को नाट्य कहते है |
नाट्य के पर्यायवाची के रूप में रूपक शब्द अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है। जिस प्रकार रूपक अलंकार ने उपमेयभूत मुख आदि पर उपमान-भूत चन्द्रादि का आरोप ( अभेदारोप) किया जाता है, उसी प्रकार नाट्य में नट वर राम आदि अनुकार्य पात्रों की अवस्था का आरोप किया जाता है, इसी अभेदारोप के कारण ही अनुकार्य तथा नट में तादात्म्य की प्रतिपत्ति होती है। जो रसाश्रयभूत नाट्य का मूल वीज है-" और इसी कारण नाट्य को इस नाम से भी अभिहित किया जाता है । ८२
नाट्य के लिए आचार्यों ने रूपक शब्द का अधिक प्रयोग किया है।
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