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प्रथम पृद्धिद: जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/
रूपक के भेद
आचार्य भरत की रूपक नामक अभिनेय कायवन्ध के दश भेद किये है। वे दश भेद है- नाटक, सप्रकरण (प्रकरण) भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक, ईहामृगा३
इस दस रूपकों के अतिरिक्त आचार्य भरत ने 'नाटिका' का भी उल्लेख किया है, जो उनके अनुसार प्रकरण- नाटकों से उत्पन्न होता है।
इस सन्दर्भ में रामचन्द्र गुणचन्द्र की कुछ ऐसी ही मान्यता है। उनके अनुसार अभिनेय काव्य के अनेक भेद होते हैं। उनकी दृष्टि में रस प्रधान नाटकादि है, अप्रधानरस दुर्माल्लिका-श्रीगदित, भाणी, प्रस्थानक, रासकादि हैं। रामचन्द्र गुणचन्द्र ने रूपक के जिन १२ भेदों को बताया है। वे हैं- नाटक, प्रकरण, नाटिका प्रकरणी, व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकांक, ईहामृग और वीथी।
भरत और रामचन्द्र गुणचन्द्र के रूपक भेद विवरण में केवल इतना अन्तर है कि भरत ने जहाँ ग्यारह रूपकों की चर्चा की है वही रामचन्द्र गुणचन्द्र ने बारह रूपकों का उल्लेख किया है। धनञ्जय और भरत में केवल परिगणन क्रम भेद है तथा दोनों ने उत्सृष्टिकांक के स्थान पर 'अंक' नामक रूपक का उल्लेख किया है। विश्वनाथ ने भी इनका पूर्णतः अनुकरण किया
आचार्य विश्वनाथ ने उपर्युक्त दस रूपकों का उल्लेख किया है और
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