________________ '24 : जैनधर्म के सम्प्रदाय समय में क्रान्तिकारी कदम उठाकर विभिन्न अन्धविश्वासों एवं सामाजिक .. कुरीतियों को समाप्त किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी अनेकान्तिक दृष्टि के द्वारा दार्शनिक मतमतान्तरों में समन्वय किया। ___ महावीर ने जिस समय अपने धर्म संघ की स्थापना की थी उस समय और भी अनेक धर्माचार्यों के धर्मसंघ विद्यमान थे। उस समय पार्श्व, रामपुत्त, प्रकुधकात्यायन, मंखलि गोशालक, संजयवेलट्ठिपुत्र, अजितकेशकम्बल तथा बुद्ध आदि के श्रमण संघ अस्तित्व में थे। इनके अतिरिक्त अनेक ब्राह्मण परिव्राजक भी अपने-अपने शिष्य मंडल के साथ विचरण कर रहे थे। ऐसे समय में अहिंसा-अपरिग्रह आदि की कठोर साधना तथा अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद जैसी समन्वयात्मक दार्शनिक पद्धति से महावीर ने जैनधर्म को सर्वोच्च स्थान पर लाकर स्थापित कर दिया। जो श्रमणसंघ उस समय विद्यमान थे उनमें से बोद्धों और आजीविकों को छोड़कर सभी श्रमण-संघ कालान्तर में नामशेष हो गए। यहाँ तक कि ईसा की आठवीं शताब्दी तक तो भारत में आजीवक भी नामशेष हो गए / बौद्ध धर्म यद्यपि भारत के बाहर अधिक पल्लवित हुआ किन्तु भारत में तो लगभग ११वीं शताब्दी के बाद वह भी समाप्त प्रायः हो गया था। इस प्रकार जहाँ भारत में अन्य श्रमण परम्परायें अपने अस्तित्व को खो रहो थीं, वहीं जैनधर्म अपने व्यापक सिद्धान्तों एवं उदात्त आदर्शों के कारण प्राचीनकाल से आज तक प्राणवान् बना रहा / काल के प्रभाव से जैनधर्म की अध्यात्मपूर्ण आचार-संहिता प्रभावित तो हुई है, किन्तु उसके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आया है। तीथंकरों में मान्यता भेद : जैनों की यह मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के आचार में कोई विशेष भेद नहीं रहा है, किन्तु मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों को आचार-सम्बन्धी मान्यताएँ इनसे भिन्न रहो हैं। उपलब्ध स्रोतों का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि आचारगत यह भिन्नता भी अकारण नहीं है वरन् वह उस युग के मानव स्वभाव के वैशिष्ट्य पर आधारित रही है। जैसा कि हम व्यवहार में भी देखते हैं कोई व्यक्ति सरलचित्त वाला होता है तो कोई वक्र चित्तवाला ( कपटो), कोई व्यक्ति प्राज्ञ होता है तो कोई मूढ़। तीर्थंकरों के उपदेश को भिन्नता भी मानव स्वभाव को भिन्नता पर आधारित रहो है।