________________ 144 : जैनधर्म के सम्प्रदाय दिगम्बर परंपरा की ओर से स्त्रीमुक्ति के खण्डन के संदर्भ में कोई तर्क प्रस्तुत किए गए हों, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य कुंदकुंद ने ही सर्वप्रथम यह कहा है कि जिनमार्ग में सवस्त्रधारी की मुक्ति नहीं हो सकतो चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो।' स्त्री मुक्त क्यों नहीं हो सकती? इसके लिए कहा गया है कि उसकी कुक्षि, योनि और स्तन में सूक्ष्म जीव होते हैं, इसलिए उसकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है ? यह भी कहा गया है कि स्त्रियों के मन में पवित्रता नहीं होती, वै अस्थिरमना होती हैं तथा उनमें रजस्राव होता है, इसलिए उनका ध्यान चिता रहित नहीं हो सकता। ऐसे कुछ तर्क देकर सर्वप्रथम आचार्य कुंदकुद ने स्त्रीमुक्ति का ताकिक खण्डन किया है। अब हम श्वेताम्बर परंपरा मान्य साहित्य को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि इस परम्परा में सातवीं शताब्दी तक दिगम्बरों की इस मान्यता का कहीं कोई तार्किक खण्डन किया हो, ऐसी जानकारी उपलब्ध नहीं है। स्त्रीमुक्ति के निषेधक तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर श्वेताम्बर परम्परा ने नहीं अपितु अचेलता की समर्थक यापनीय परंपरा ने दिया है। यापनीय परंपरा के तर्कों का हो अनुसरण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया है। श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया है। किन्तु उन्होंने भी यहाँ अपनी ओर से कोई तर्क नहीं देकर इस संबंध में वर्तमान में अनुपलब्ध किसी याफ्नीय प्राकृत ग्रंथ का उद्धरण दिया है। इससे ऐसा लगता है कि आचार्य कुदकुंद ने स्त्रीमुक्ति निषेध के लिए जो तर्क दिए थे उनका खण्डन प्रथम तो यापनीयों ने ही किया था तत्पश्चात् यापनीयों के तर्कों को ही ग्रहीत करके आठवीं शताब्दी से 1. गवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। __णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥-सूत्रपाहुड, गाथा 23 2. लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु / भणिओ सुहओ काओ तासि कह होइ पव्वज्जा ॥-सूत्रपाहुड, गाथा 24 3. जइ दसणेण सुद्धा उत्ता मग्गे ण सावि संजुत्ता। घोरं चरियं इत्थीसुण पावया भणिया // चित्ता सोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण / विज्जदि मासा तेसि इत्थीसु णऽसंकया झाणं ॥-सूत्रपाहु, गाथा 25-26 4. ललितविस्तरा, पृ० 402