Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 211
________________ 200 : जैनधर्म के सम्प्रदाय स्थलमुर्छाव्युपरमण को अणुव्रत माना है।' हरिभद्र ने श्रावकप्रज्ञप्ति में स्थलप्राणिवध आदि से विरत रहने को अणुव्रत माना है। आचार्य जिनसेन ने महापुराण में स्थूल हिंसा आदि दोषों से विरत होने को अणुव्रत कहा है। वसुनन्दि ने वसुनन्दिश्रावकाचार में स्थूलप्राणातिपात आदि से विरत होने को अणुव्रत माना है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहुड में अणुव्रतों को इस रूप में प्रस्तुत किया हैं'-(१) स्थूल त्रसकाय वध परिहार, (2) स्थूल मृषावाद परिहार, (3) स्थूल अदत्त परिहार, . (4) परमहिला परिहार और (5) परिग्रह-आरम्भ परिमाण। .. जैन आगमों एवं उत्तरवर्ती ग्रन्थों में विविध आचार्यों ने अणुव्रतों के स्वरूप का जो वर्णन किया है, उनके कथन को शैली में भिन्नता अवश्य है, किन्तु सभी आचार्यों ने हिंसा आदि पांच पापों के आंशिक त्याग को अणुव्रत माना है / अणुव्रत मूलतः तो पांच ही माने गये हैं, किन्तु दिगम्बर परंपरा के मान्य ग्रन्थ चारित्रसार में रात्रि भोजन-त्याग को श्रावक का छठा अणुव्रत माना गया है। सर्वार्थसिद्धि टीका में यद्यपि रात्रि भोजन त्याग की गणना छठे अणुव्रत के रूप नहीं की गई है, किन्तु वहाँ यह कहा गया है कि अहिंसा व्रत की 'आलोकित भोजनपान' भावना में रात्रिभोजन विरमण व्रत का अन्तर्भाव हो जाता है / पांच अणुव्रत एवं अतिचार : 1. स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत___ अहिंसा अणुव्रत नाम भी इसो व्रत का है। जोवनपर्यन्त के लिए दो करण (कृत व कारित), तीन योग ( मन वचन एवं काया) से स्थूल हिंसा का त्याग करना श्रावक का स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रत है।' 1. रलकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 36 2. श्रावकप्रशप्ति, 106 3. महापुराण, 39 / 4 4. वसुनन्दिश्रावकाचार, श्लोक 208 5. चारित्रपाहुड, गाथा 24 6. "पंचधाऽणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतं / " चारित्रसार, 13 // 3 7. सवार्थसिबिटीका, 71 8. (क) स्थानांगसूत्र, 5 / 1 / 2 (ख) उवासगदसाओ, 1 / 13

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