________________ 234 : जैनधर्म के सम्प्रदाय प्रतिक्रमण आदि बिन्दुओं को स्पर्श करते हुए यह स्पष्ट किया है कि विभिन्न सम्प्रदायों में इनको लेकर क्या भिन्नताएँ हैं ? इस अध्याय के . अन्त में हमने समाधिमरण की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि समाधिमरण की सामान्य विधि तो श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान है। किन्तु दोनों परंपराओं में बारह वर्षीय समाधिमरण व्रत ग्रहण करने की प्रक्रिया के संबंध में भेद पाया गया है, जिसके उल्लेख विविध ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। चतुर्थ अध्याय में इसी संदर्भ में चर्चा की गई है। षष्ठम अध्याय श्रावकाचार से संबंधित है। श्रावकाचार में जो विवाद का मुख्य विषय है वह मूलगुणों की अवधारणा से संबंधित है। दिगंबर परंपरा में अष्ट मूलगुणों की चर्चा विस्तार से हुई है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में इसके स्थान पर सप्त कुव्यसन त्याग और श्रावक के 21 गुणों या 35 मार्गानुसारीगुणों का पालन मुख्य बतलाया गया है / जहाँ श्वेताम्बर परंपरा में श्रमणों को तरह ही श्रावकों के लिये भी षडावश्यक करने का उल्लेख मिलता है, वहीं दिगम्बर परंपरा में श्रावकों के लिए देवपूजा, गुरुवन्दन आदि षट्कर्तव्यों का विचार प्रस्तुत किया गया है / श्रावक के बारह व्रतों में संख्या को दष्टि से सभी परंपराएँ एकमत हैं, किन्तु अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के विभाजन और उनके क्रम आदि को लेकर श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों परंपराओं में मतभेद देखा जा सकता है। बारह व्रतों के अतिचारों को भी सभी आचार्यों ने समान रूप में नहीं स्वीकारा है, कहीं उनके नाम को लेकर तो कहीं उनके क्रम को लेकर भिन्नता है। इस भिन्नता की चर्चा हमने विस्तारपूर्वक इस अध्याय में की है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकृति यद्यपि दोनों परंपराओं में समान रूप से पाई जाती है, तथापि उनके क्रम आदि को लेकर कुछ अवान्तर मतभेद है। प्रतिमाओं के सन्दर्भ में दोनों परंपराओं में मूलभूत अन्तरयह है कि श्वेताम्बर परंपरा में प्रतिमाओं को विशिष्ट प्रकार का माना गया है, जबकि दिगम्बर परंपरा में प्रतिमाएं निर्ग्रन्थ श्रमणजीवन तप की ओर अग्रसर होने के क्रमिक सोपान हैं। ___ इस विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि जैन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की आचारगत मान्यताओं की भिन्नता में नीतिदर्शन के सिद्धान्त निहित हैं। नीतिदर्शन सिद्धान्त के धरातल पर चाहे निरपेक्ष हो किन्तु