Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 246
________________ उपसंहार : 235H व्यवहार के धरातल पर वह सापेक्षा हो होता है। नोति का यह सापेक्षात्मक स्वरूप हमें धर्म में भी प्राप्त होता है जो आचारगत भिन्नताओं का आधार है। इसके साथ ही हमने आचार संबंधो भिन्नता की चर्चा में यथास्थान उन परिस्थितियों को ओर भो संकेत किया है जिनने विभिन्न सम्प्रदायों में आचारगत भिन्नता को प्रवर्तित करने में सहायक भूमिका निभाई है। जैन दर्शन अनेकान्तवाद का प्रस्तावक होने के नाते इन भिन्नताओं को न केवल सहज ही स्वीकार कर सका, अपितु इन भिन्नताओं के अनुसार चलने में भी उसे किसी दुविधा का सामना नहीं करना पड़ा। विचार-सहिष्णुता और विरोध सहिष्णुता जैन धर्म एवं दर्शन की विशिष्ट पहचान है, जो शताब्दियों से अजस्ररूप में प्रवाहित है। समस्या तभी उपस्थित होती है जबकि सम्प्रदाय विशेष को आचारगत मान्यताओं को हो एकमात्र जैन समस्त विचारधारा अथवा नीतिसिद्धान्त का प्रतिनिधि मान लिया जाता है / परिणामतः साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने लगते हैं और अनेकांत दृष्टि की आत्मा मर जाती है।। __अतः प्रस्तुत कृति में हमने जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन तथा आचार संबंधी मान्यताओं को जो चर्चा की है, उससे यह ज्ञात होता है कि जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यताओं में कहीं समानता है तो कहीं भिन्नता / जिन भिन्नताओं को हमने चर्चा की है वे सभी भिन्नताएं ऐसी नहीं हैं, कि उनके समन्वय के सूत्र नहीं खोजे जा सकते हो / आवश्यकता इस बात की है कि श्रमण जीवन और श्रावक जीवन के समस्त आचार-व्यवहार का वर्तमान सन्दर्भ में सम्यक् मूल्यांकन हो और उनकी मूलभूत अवधारणाओं को मान्य रखते हुए वर्तमान देश और काल के परिप्रेक्ष्य में उन पर पुनर्विचार किया जाए। यदि समन्वयात्मक दृष्टिकोण से यह प्रयास किया जाए तो विभिन्न सम्प्रदायों को वैचारिक और. आचारगत भिन्नता को दूर किया जा सकता है /

Loading...

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258