Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 210
________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 199 इसके अतिरिक्त श्रावकाचार के विविध पहलुओं का विवेचन श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र की सावयपण्णत्ति तथा धर्मबिन्दु में, जिनेश्वरसरिके षडस्थानप्रकरण में, शान्तिसूरि के धर्मरत्नप्रकरण में, देवेन्द्रसूरि के षडजीवकल्प में, जिनमंडनगणि के श्राद्धगुणविवरण में, रत्नशेखर को श्राद्धविधि में और उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है तथा दिगम्बर परंपरा में यह विवेचन कुन्दकुन्द के चारित्रपाहड में, कार्तिकेय को कार्तिकेयानुप्रेक्षा में, समन्तभद्र के रत्नकरण्डकश्रावकाचार में, जिनसेन के आदि पुराण में, सोमदेव के उपासकाध्ययन में, अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धय पाय में, वसुनन्दि के वसुनन्दिश्रावकाचार में, अमितगति के अमितगतिश्रावकाचार में, पंडित आशाधर के सागार धर्मामृत आदि ग्रन्थों में हुआ है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में श्रावकाचार का पालन करने वाले श्रावक के लिए पाँच अणुव्रत, तोन गुणवत, चार शिक्षाव्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ तथा छः आवश्यक कर्मों का विधा किया गया है। अणुव्रतः ___अहिंसा आदि पाँच व्रतों का पालन जब पूर्ण रूप से किया जाता है तो ये महाव्रत कहलाते हैं और जब इन व्रतों का पालन आंशिक रूप से किया जाता है तो ये अणुव्रत कहलाते हैं। स्थानांगसूत्र' तथा उपासकदशांगसूत्र में स्थूलप्राणातिपात विरमण, स्थूल मृषावाद विरमण, स्थूल-अदत्तादान विरमण, स्वदारसंतोष तथा इच्छाविधिपरिमाण-इन पाँच अणुव्रतों का उल्लेख हआ है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा आदि से अल्प अंश में विरति होना अणुव्रत माना है। भगवतो आराधना में प्राणवध, मृषावाद, अदत्तादान, परदारगमन तथा अमर्यादित इच्छा (परिग्रह) से विरत होना अणुव्रत माना है। समन्तभद्र ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में स्थूलप्राणातिपातव्युपरमण, स्थूलवितथव्याहारव्युपरमण, स्थूलस्तेयव्युपरमण, स्थूलकामव्युपरमण और 1. स्थानांगसूत्र, 5 / 112 2. उवासगदसाओ, 1113-17 3. तत्त्वार्थसूत्र, 72 4. भगवती आराघुना, गाथा 2074

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