Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 239
________________ सप्तम अध्याय उपसंहार प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में हमने मुख्य रूप से जैन धर्म के उद्भव एवं विकास का परम्परागत एवं ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। परम्परानुसार तो जैनों की यह मान्यता है कि इस अवसर्पिणी काल में उनके धर्म का प्रारम्भ ऋषभदेव से हुआ है। जैनों की चौबीस तीर्थंकर की मान्यता भो यह स्वीकार करतो है कि कालचक्र की प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर जैन धर्म का प्रवर्तन करते रहते हैं। उनकी यह भी मान्यता है कि जम्बूद्वीप में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ तीर्थकर सदैव बने रहते हैं। इस दृष्टि से जैन मतावलम्बी अपने धर्म को अनादि भी घोषित करते हैं। जहाँ तक इतिहासविदों का प्रश्न है, वे चौबीस तोथंकरों की अवधारणा को एक क्रमिक विकास मानते हैं / उनके अनुसार चौबीस तीर्थंकरों में से महावीर निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को भी वे किसी सीमा तक स्वीकार करने में सहमत हैं, किन्तु अरिष्टनेमि और ऋषभदेव सहित शेष सभी तीर्थंकरों को वे प्रागैतिहासिक व्यक्ति ही मानते हैं। ऋग्वेद आदि में इन तीर्थंकरों के नामोल्लेख होने से यह तो माना जा सकता है कि वे हुए होंगे, किन्तु उनका आचार और दर्शन क्या था ? यह सब ऐतिहासिक दृष्टि से अनिश्चित-सा ही है। यद्यपि जैन धर्म में दिगम्बर सम्प्रदाय की सामान्य अवधारणा तो यह है कि सभी तीर्थकर समान धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं तथा उनकी आचार एवं दार्शनिक मान्यताओं में भी एकरूपता होती है, किन्तु यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं-- विशेष रूप से नियुक्तियों में यह माना गया है कि तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों में देश ओर काल के अनुसार कथंचित् अन्तर होता है। इस अन्तर का उल्लेख सर्वप्रथम उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। महावीर और पार्श्वनाथ की आचार व्यवस्था का यह भेद न केवल श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में, अपितु दिगम्बर परम्परा के द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ-भगवती आराधना और मूलाचार में भी उल्लिखित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258