Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 217
________________ 206 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अनंगक्रीडा और तीव्रकामाभिनिवेश-ये पांच अतिचार गिनाएं हैं।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार में अन्य विवाहकरण, अनंगक्रीडा, विटत्व, विपुल तष्णा और इत्वरिकागमन को ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार माने हैं। सोमदेव ने उपासकाध्ययन में परस्त्री संगम और कैतव्य ये दो अतिचार 'भिन्न बतलाये हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि इस व्रत के अतिचारों के नाम एवं क्रम में आंशिक भिन्नता है। परिणामस्वरूप कुछ अर्थभेद भो दृष्टिगोचर होता है। उपासकदशांग में जहां पहला अतिचार इत्वरिपरिगृहोतागमन है वहाँ तत्त्वार्थसूत्र में परविवाहकरण है। परविवाहकरण उपासकदशांग में चौथे नम्बर पर है / परविवाहकरण को समन्तभद्र ने अन्यविवाहकरण और सोमदेव ने परस्त्री संगम कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में ब्रह्मचर्यव्रत के चौथे अतिचार में विटत्व का प्रयोग करके. शारीरिक कुचेष्टाओं तथा अश्लोल और भद्दे वचनों के प्रयोग को भी अतिचार माना गया है। उपासकाध्ययन में विटत्व के स्थान पर केतव्य शब्द का प्रयोग करके झूठ, धोखा और जालसाजो को भो इस व्रत के अतिचार माने हैं। अतिचारों के कथन में शाब्दिक समानता भले न रहो हो, किन्तु कामवासना के संयम की मूल भावना में कोई भिन्नता नहीं है। सभी आचार्यों ने पांच-पांच अतिचारों का कथन करके यही बतलाया है कि इनसे बचे रहकर ही निर्दोष ब्रह्मचर्य का परिपालम हो सकता है। 5. इच्छाविधि परिमाण प्रत : श्रावक का यह व्रत अपरिग्रह अणुव्रत के नाम से जाना जाता है। श्रमण की तरह श्रावक के लिए परिग्रह का पूर्ण त्याग करना सम्भव नहीं है / गृहस्थावस्था में रहने के कारण श्राक्क अपने एवं अपने परिवार के भरणपोषण, बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाज में मान-मर्यादा तथा अतिथिसत्कार एवं श्रमणों के ग्रहण करने योग्य उपकरणों को जुटाने हेतु परिग्रह अवश्य करता है, किन्तु इस व्रत को ग्रहण करके श्रावक अपनी मर्यादा और स्थिति के अनुसार इच्छाओं को सीमित करने का 1. तत्त्वार्थसूत्र, 7 / 23 2. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3 / 14 3. उपासकाध्ययन, लोक 48

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