________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएं : 209 दिग्वत का विवेचन किया गया है, किन्तु उसके स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश नहीं डाला गया है। उपासकदशांगसूत्र के टीकाकार मुनि घासीलाल जी ने दिग्व्रत में पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं की मर्यादा कर लेने को कहा है।' आवश्यकसूत्र में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक दिशा में गमनागमन के यथापरिमाण त्याग को दिग्व्रत कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में सक्ष्म पापों से मुक्त होने के लिए दसों दिशाओं की मर्यादा करके जीवनपर्यन्त उससे बाहर नहीं जाने के संकल्प को दिग्वत कहा है। इसी ग्रन्थ में आचार्य समन्तभद्र ने दसों दिशाओं में स्थित समुद्र, नदो, पहाड़, पर्वत, शहर आदि की मर्यादा निश्चित करने को कहा है। अतिचार आचार्यों ने अन्य व्रतों की तरह दिग्वत के भी पांच अतिचार प्रतिपादित किये हैं / उपासकदशांगसूत्र में ऊर्ध्वदिशि-प्रमाणातिक्रम, अघोदिशिप्रमाणातिक्रम, तिर्यदिशि-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान को दिशिवत ( दिग्व्रत ) के अतिचार माने हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी ये हो पांच अतिचार कहे गये हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में ऊर्ध्व व्यतिपात, अधो व्यतिपात, तिर्यक् व्यतिपात, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान को दिग्वत के अतिचार कहा है। सागार धर्मामृत में सीमा विस्मृति, ऊर्ध्व व्यतिक्रम, 1. उपासकदशांगसूत्रटीका-मुनि घासीलाल, पृ० 235 2. आवश्यकसूत्र, 6 3. "दिग्बलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिनं यास्यामि / इति सङ्कल्पो दिग्वत-मामृत्यणुपापविनिवृत्यै / " -रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3 / 22 .. 4. दस दिशाएं इस प्रकार हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अषो, . ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य / ... 5. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3 / 23-24 6. "तयाणंतरं च नं दिसिव्वयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समारियण्वा / तं जद्दा-उड्ढदिसिममाणा इक्कमे, अहो-दिसिपमाणा इक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्ढी, सइअंतरता।" -उवासगदसाओ, 1150 7. तत्त्वार्थसत्र, 25 8. रलकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 3227