________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएं : 225 श्वेताम्बर परम्परा में रात्रिभोजन त्याग को स्वतन्त्र प्रतिमा नहीं मानकर उसका समावेश पांचवीं प्रतिमा “नियम" में कर दिया है / ब्रह्मचर्य प्रतिमा का क्रम श्वेताम्बर परम्परा में छठा है तो दिगम्बर परम्परा में सातवाँ। सचित्त त्याग को दिगम्बर परम्परा ने पांचवें स्थान पर रखा है, तो श्वेताम्बर परम्परा ने सचित्त त्याग को सातवाँ स्थान दिया है। आरम्भ त्याग को दोनों ही परम्पराओं ने आठवां स्थान दिया है / नर्वे क्रम पर श्वेताम्बर परम्परा में प्रेष्य त्याग है, जबकि दिगम्बर परम्परा में परिग्रह त्याग है। दोनों में मात्र शाब्दिक या क्रमगत अन्तर है। श्वेताम्बर परम्परा में दसवे क्रम पर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का कथन है जबकि दिगम्बर परम्परा में इसका क्रम ग्यारहवां है / श्वेताम्बर परम्परा में अन्तिम प्रतिमा श्रमणभूत प्रतिमा मानी गई है जिसका तात्पर्य श्रावक का श्रमण तुल्य हो जाना है / इस प्रतिमा को चर्चा करते हुए श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री लिखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जो उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा कही गई है, वह श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणभूत प्रतिमा हो है, क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक भी श्रमण के सदृश हो जाता है। दोनों हो परम्पराओं में उद्दिष्ट त्याग का अर्थ भिक्षावृत्ति से भोजन करना है। इस अवस्था में गृहस्थ का आचार भी श्रमण की तरह ही होता है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी को खण्डवस्त्र धारण करने वाला कहा है। , श्रावकाचार का पालन करने वाला दया, दान और शोलरूप श्रावक धर्म का पालन करता है। श्वेताम्बर परम्परा में श्रावक के 35 मार्गानुसारी गुणों और 21 गुणों का उल्लेख आचार्य हरिघद्र ने पंचाशक में तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में किया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर आगमों में २१.गुणों अथवा 35 मार्गानुसारी गुणों की कोई चर्चा नहीं है, उनमें तो श्रावक धर्म का विवेचन मात्र 12 व्रतों एवं 11 प्रतिमाओं के माध्यम से ही हुआ है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें भो अष्ट मूलगुणों की चर्चा कुन्दकुन्द के बाद ही विकसित - लगती है। श्रावक के ये अष्टमूलगुण क्या हैं ? इस प्रश्न को लेकर दिगम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में 1. समवायांगसूत्र, मधुकर मुनि, प्रस्तावना, पृ० 22 . 2. (क) समवायांगसूत्र, मधुकर मुनि, विवेचनसूत्र, 11171 (ख) रत्नकरण्डकथावकाचार, श्लोक 5 / 26 3. वही, श्लोक 5 / 26