________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 201 श्रावक अहिंसा अणुव्रत का पालन करने हेतु यथाशक्ति शुद्ध प्रवृत्ति करता है, किन्तु गृहस्थावस्था में रहने के कारण ज्ञात-अज्ञात रूप में उससे आंशिक रूप में इस व्रत का उल्लंघन हो जाना स्वाभाविक है। व्रत में पूर्ण प्रवृत्ति न होने के कारण श्रावक को यह भूमिका स्थूल अर्थात् आंशिक त्याग की कही गई है / इस व्रत का पालन करते हुए श्रावक निरपराध अस एवं स्थावर जोवों की हिंसा का मन, वचन एवं कायापूर्वक त्याग करता है। श्रावक अपने व्यावसायिक एवं पारिवारिक दायित्वों से पूर्णतः मुक्त नहीं होता है, अतः उसके व्रताराधन में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार की सम्भावना रहतो है, इसलिए श्रावक के अहिंसावत को स्थूल "प्राणातिपात विरमण व्रत कहा गया है / अतिचार: अनभिज्ञता में व्रत में कहीं स्खलना हो जाती है तो उसे अतिचार कहा जाता है। आचार्यों ने प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार कहे हैं, "जिन्हें जानना चाहिए, परन्तु आचरण नहीं करना चाहिए। - उपासकदशांगसूत्र में स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत के पांच अतिचार-बंध, वध, छविच्छेद, अतिभार, और भतपानविच्छेद कहे हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में बंध, वध, विच्छेद अतिभारारोपण तथा अन्नपाननिरोध अहिंसा अणुव्रत के अतिचार माने गये हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में छेदन, बन्धन, पीड़न, अतिभारारोपण और आहारवारण को अतिचार बताया है। सागारधर्मामृत में बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण और भुक्तिनिरोध अहिंसाणुव्रत के अतिचार माने गयेहैं। इसके अलावा आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में तथा आचार्य अमितगति ने अमितगतिश्रावकाचार.. 1. "तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएगं पंच अइ यारा पेयाला जाणियव्या न समारियम्वा / तंजहा-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्त-पान-वोच्छए।" -उवास गदसामओ, 1145 2. तत्त्वार्थसूत्र, 7 / 20 3. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 338 4. सागार धर्मामृत, 4115