________________ 152 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अतः केवली आहार लेते हैं। केवलीभुक्ति के पक्ष और निषेध में जो कुछ लिखा गया है यदि हम उस पर तटस्थ भाव से विचार करें तो कह सकते हैं कि केवलो भगवन् का शरीर औदारिक है इसलिए उन्हें भी आहार की आवश्यकता तो रहती ही है। फिर भले ही वह आहार कवलाहार रूप हो अथवा नोकर्माहाररूप। ' इस समग्र चर्चा के आधार पर यह फलित होता है कि श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा में केवलो के आहार को लेकर विवाद नहीं है, अपितु आहार के प्रकार को लेकर हो विवाद है। केवली में ज्ञान और दर्शन के भेद-अभेद का प्रश्न : जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताओं का अध्ययन करते हुए एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उपस्थित होता है कि केवली में दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं अथवा युगपत् (एक साथ) ? इस विषय में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इस सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में पर्याप्त मतभेद हैं / श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार केवली को दो उपयोग (ज्ञान और . दर्शन) एक साथ नहीं हो सकते। श्वेताम्बर परम्परा मान्य व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में महावीर और गोतम को इस विषयक चर्चा उपलब्ध है। ज्ञान और दर्शन में क्रमभावित्व स्पष्ट करते हुए महावीर कहते हैं-"हे गोतम ! केवली का ज्ञान साकार (विशेष-ग्राहक) होता है और दर्शन अनाकार (सामान्य-ग्राहक) होता है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि जिस समय वह देखता है उस समय वह जानता नहीं है।'' आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य में भी स्पष्ट कहा है-"ज्ञान और दर्शन में से एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है, अतः केवली को भी ज्ञान और दर्शन-ये दो उपयोग युगपत् (एक साथ) नहीं हो सकते।"२ 1. "गोयमा ! सागारे से नाणे भवति, अणगारे से दंसणे भवति, से तेणट्रेणं जाव नो तं समयं जाणइ ।"-व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 188 / 21 (2) 2. नाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरम्मि उवउत्तो। सव्वस्स केवलिस्स जुगवं दो नत्थि उवओगा // " -(क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 979 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3096