________________ 15. नवों के सम्प्रदाय ( मलमूत्र ), श्लेष्म, कफ, पसीना आदि से रहित बतलाया है'। षटखण्डागम यद्यपि कुन्दकुन्द का समकालीन ग्रन्थ है फिर भी उसमें केवलीभुक्ति का निषेध नहीं है, अपितु मूलग्रन्थ में तो एकेन्द्रिय से लेकर सयोगी केवली तक सभी जीवों को आहारक माना है / / यहाँ हम देखते हैं कि पूर्व पक्ष के रूप में केवलीभुक्ति का समर्थन हमें ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों में मिलता है जबकि केवलोभुक्ति का निषेध कुन्दकुन्द के पूर्व के किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता है। जैसा कि हम पूर्व में हो यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि कुन्दकुन्द का काल 6 ठी शताब्दी से पूर्व का नहीं माना जा सकता है। इस आधार पर भी यही फलित होता है कि दिगम्बर परम्परा में केवलीभुक्ति निषेध की अवधारणा भी ६ठीं शताब्दी के लगभग बनो है। आचार्य कुन्दकुन्द के केवलोभुक्ति निषेधक तर्क को और गति देते हुए 10 वीं-११ वीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में केवलीभुक्ति निषेध का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। यदि हम श्वेताम्बर परम्परा मान्य साहित्य को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि ९वीं-१०वीं शताब्दी तक भी दिगम्बरों की केवलीभुक्ति निषेधक मान्यता का कहीं कोई तार्किक खण्डन नहीं हुआ . है। हमारे मतानुसार श्वेताम्बर आचार्यों को उस समय दिगम्बर मत का खण्डन करने की आवश्यकता इसलिए नही पड़ो होगी क्योंकि दिगम्बर परम्परा के भी सभी आचार्यों ने केवलोभुक्ति निषेधक कुन्दकुन्द के तर्कों को मान्य नहीं किया था। दसवीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने ग्रंथ गोम्मटसार में पुनः पूज्यपाद के मत का हो समर्थन करते हुए यह प्रतिपादन किया है कि एकेन्द्रिय से लेकर सयोगो केवली तक सभी जीव आहारक होते हैं। 1. "जरावाहिदुक्खरहियं आहारनिहारवज्जियं विमलं / सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगंछा य दोसो य।" -बोधपाहुड, गाथा 37.. 2. “आहारा एंदियप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति / ' षट्खण्डागम, 1/1/176-177. 3. प्रमेयकमलमार्तण्ड-अनु० आर्यिका जिनमतीजी, अध्याय 6 ( कवलाहार विचार), पृ० 177-199 4. थावरकायप्यहुदि सजोगिचरमेति होदि आहारी। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा 696