________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएं: 171 माया कषाय और (4) लोभ कषाय। श्रमण चारों प्रकार के कषायों से सर्वथा विरत रहता है। समवायांगसूत्र में चारों कषायों के विवेक को श्रमण का मूलगुण माना गया है।' भाव सत्य : हिंसा आदि दोषों से रहित वचन बोलना भाव सत्य है / धर्मवृद्धि के लिए श्रमण सदैव ही स्व-परहितकारक, परिमित एवं अमृत सदृश जो वचन-व्यवहार करता है, वह भाव सत्य है। यदि कोई शिकारी किसी श्रमण से पूछे कि क्या आपने इधर हिरण देखा है ? प्रत्युत्तर में यदि श्रमण यह कहे कि मैंने इधर हिरण नहीं देखा है, तो श्रमण का यह कथन भी असत्य नहीं है, अपितु जीव-रक्षा के कारण इसे भाव सत्य माना गया है। भाव सत्य से जीव क्या प्राप्त करता है ? इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि भाव सत्य से जीव भाव विशुद्धि प्राप्त करता है तथा शुद्ध भाव वाला जीव अर्हन्त प्रणीत धर्म की आराधना करता है। करण सत्य: करण सत्य में श्रमण की उपधि की पवित्रता पर बल दिया गया है। विविध प्रकार के उपकरणों को रखने, उठाने आदि में श्रमण का हिंसादिवृत्ति से रहित जो व्यवहार है, वह करण सत्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि करण सत्य से जीव सत्प्रवृत्ति करता है और सत्प्रवृत्ति वाला जीव जैसा कहता है वैसा ही करने वाला होता है। योग सत्य: मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है / इन तोनों प्रवृत्तियों को सत्यनिष्ठ बनाना अर्थात् इनमें प्रवंचना या छल नहीं करना योग सत्य है। क्षमा: श्रमण क्वचित् क्रोध का कारण उपस्थित हो जाए तो भी समभाव को धारण किये रहता है। समभाव से युक्त श्रमण सदैव क्षमारूपी अमृत का ही पान करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के सम्यक्त्व-पराक्रम नामक उनतीस 1. समवायांगसूत्र, 27 / 178 2. उत्तराध्ययनसूत्र, 29 / 51 3. वही, 29 / 52