Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 185
________________ 274 : जैनधर्म के सम्प्रदाय .. ... है तथा समस्त दुःखों का अन्त करता है।' वेदनातिसहनता : ____ जीवन में जो कष्ट अथवा अमनोज्ञ अनुभूतियां होती हैं, उनको... समभाव पूर्वक सहन करना हो वेदनातिसहनता है / सामान्य शब्दों में कहें तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चित्त को समभाव में रखना वेदनातिसहनता है। मारणान्तिकातिसहनता : .. मृत्यु के उपस्थित होने पर विचलित नहीं होना और उस समय समभाव में रहना मारणान्तिकातिसहनता है। दूसरे शब्दों में इसे समाधिमरण कहा जाता है। श्रमण के मूलगुणों की समीक्षा : श्रमण को जिन मूलगुणों का पालन करना होता है उनकी संख्या, नाम एवं क्रम आदि को लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा एकमत नहीं हैं। श्रमण के मूलगुणों में से कुछ गुण ऐसे हैं जो दोनों परम्पराओं में समान हैं, किन्तु कुछ मूलगुण ऐसे भी हैं, जो दोनों परम्पराओं में भिन्न हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पांच महाव्रतों को समान रूप से स्वीकार किया गया है। पांच महाव्रतों के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में पाँचों इन्द्रियों के निग्रह का उल्लेख हुआ है, किन्तु दिगम्बर परम्परा पाँच इन्द्रिय निग्रह से पहले पांच समितियों को स्थान देतो है। यद्यपि पाँच इन्द्रिय निग्रह को भी दोनों परम्पराओं ने समान रूप से स्वीकार किया है तथापि उनके क्रम में अन्तर है। श्वेताम्बर परम्परा में पाँच इन्द्रिय निग्रह के पश्चात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषायों के त्याग को श्रमण के मूलगुण में गिनाया गया है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में चार कषायों के त्याग को मूलगुणों में नहीं गिनाया गया है / दिगम्बर परम्पर में कषाय त्याग का कथन अन्यत्र किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में कषाय त्याग के पश्चात् भाव सत्य, करण सत्य, योग सत्य, क्षमा, विरागता, मनसमाधारणता, वचनसमाधारणता, काय 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 29 / 62 2. षखण्डागम, 131313111

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