Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 193
________________ .182 : जैनधर्म के सम्प्रदाय इसलिए श्रमण वर्षाकाल के चार माह एक ही ग्राम या नगर में व्यक्तात करता है। ____ आचारांगसत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्षावास का जो कथन किया गया है, वह विशेष ज्ञातव्य है। इस कथन में एक ओर यह कहा गया है कि वर्षाकाल आ जाने पर मार्ग में उत्पन्न जीव, अंकुरित बीज तथा हरी वनस्पति आदि को रक्षा हेतु श्रमण को इस अवधि में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि वर्षाकाल के चार माह व्यतीत हो जाने के पश्चात् दूसरे दिन हो श्रमण अन्यत्र विहार कर दे। यदि उस समय वर्षा हो रही हो तो चार माह बाद भी पाँच-दस दिन वह वहाँ और रूक जाए, तत्पश्चात् जब यह जान ले कि अब वर्षा नहीं हो रही है, मार्ग कीचड़, हरी वनस्पति एवं सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से रहित हो गए हैं तो वह विहार कर दे। आचारांगसूत्र में वर्षावास के पश्चात् भी वर्षा होने की स्थिति में जो पांच दस दिन और रूकने का कथन उल्लिखित है, वह अन्तिम अवधि नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उस कथन का मूल प्रयोजन तो इतना हो मानना होगा कि वर्षाकाल के बाद भी यदि मार्ग विहार योग्य नहीं हुए हों तो. कुछ दिन वहाँ और रूका जा सकता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि श्रमण इस बहाने अधिक दिनों तक वहाँ रूक जाए / सम्भवतः इसीलिए ग्रंथ में कुछ दिनों की यह मर्यादा निश्चित की गई है। __ श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ दंशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में तो वर्षावास के पूर्व तथा पश्चात् दोनों समय एक-एक माह और उसी स्थान पर रूक सकने का कथन उल्लिखित है / ग्रंथ में कहा गया है कि आषाढ़ मासकल्प करके यदि श्रमण को चातुर्मास योग्य क्षेत्र नहीं मिले तो वह उसी स्थान पर चातुर्मास कर ले और चातुर्मास के पश्चात् भी यदि वर्षा नहीं रूके तो वह उस स्थान पर एक माह और रूक सकता है। इस प्रकार वर्षाकाल में छह माह तक श्रमण एक ही स्थान पर रूक सकता है। 2 / 3 / 1 / 464-468 2. वही, 2 / 3 / 11467 3. वही, 2 / 3 / 11468 4. “काऊण मासकल्पं तत्थेव ठियाण तीए मग्गसीरे / सालम्बणाण छम्मासितो तु जेट्ठोग्गहो होति / " -दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा 69

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