________________ 176 : मनवम के सम्प्रदाय नहीं है कि श्रमण इन गुणों का पालन आंशिक रूप से करता है। बास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक श्रमण अपनी-अपनी परम्परानुसार इन गुणों का भी मूलगुणों की तरह ही पालन करता है। भिक्षचर्या - श्रगण भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करता है। भिक्षाचर्या श्रमण की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। श्रमण को उच्च-नीच और मध्यम कुलों से समभावपूर्वक निर्दोष आहार लाकर जीवनयापन करना होता है। आचारांगसूत्र और दशवकालिकसूत्र में भिक्षाचर्या का कोई निश्चित काल नहीं बताकर यही कहा गया है कि भिक्षा का काल प्राप्त होने पर श्रमण शिक्षा के लिए जाए', किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में दिन के तीसरे प्रहर को भिक्षाकाल माना गया है। दिगम्बर परम्परा में केवल एक समय ही भिक्षार्थ जाने का विधान है। श्वेताम्बर श्रमण जिस देश में भिक्षा का जो उचित समय हो, उस समय भिक्षाचर्या के लिए जाते हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात् श्रमण भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाते हैं। दशवकालिकसूत्र के पिण्डेषणा अध्ययन में भिक्षाचर्या की विधि-निषेध का कथन करते हुए कहा गया है कि भिक्षाचर्या के लिए निकला हुआ मुनि स्थिरचित्त से युगप्रमाण ( साढ़े तीन हाथ ). भूमि को देखता हुआ, हरी वनस्पति, द्वीन्द्रियादि प्राणी, सचित्त जल, सचित्त मिट्टी तथा अग्निकाय आदि को बचाता हुआ चले / अन्य मार्ग विद्यमान हो तो श्रमण ऊबड़खाबड़ भू-भाग तथा कीचड़युक्त मार्ग से नही जाए, किन्तु यदि दूसरा मार्ग नहीं हो तो उस स्थिति में यतनापूर्वक उस मार्ग से जाए। जीवा हिंसा से बचने के लिए श्रमण कोयले की राशि, राख के ढेर, भसे (धान्य) 1. (क) "अयं संघी ति अदक्खु / " -आचारांगसूत्र, 1 / 2 / 5 / 88 (ख) “संपत्ते भिक्खाकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ।" -दशवकालिकसूत्र, 5 / 83 2. “पढम पोरिसिं समायं बीयं झाणं शियायई / तझ्याए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झाय // " -उत्तराध्ययनसूत्र, 26 / 12