________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 179 करे।' आचार्य कुन्दकुन्द ने लिंगपाहुड में गरिष्ठ एवं इष्ट रस युक्त पौष्टिक आहार को श्रमण के लिए त्याज्य माना है। स्वास्थ्य की दृष्टि से श्रमण के आहार प्रमाण की चर्चा करते हुए कहा गया है कि श्रमग उदर ( पेट ) के चार भागों में से आधा भाग भोजन से भरे, तोसरा भाग जल से परिपूर्ण करे और चौथा भाग वायु संचरण के लिए खाली रखें / भगवती आराधना में पुरुष (श्रमण ) के आहार का प्रमाण बत्तीस ग्रास और स्त्री ( आर्यिका) के आहार का प्रमाण अट्ठाईस ग्रास कहा गया है / श्वेताम्बर परंपरा में चूँकि श्रमण आहार लाकर स्थानक, उपासरे अथवा ठहरने योग्य किसी भी यथेष्ठ स्थान पर ग्रहण करते हैं, इसलिए इस परंपरा में वृद्ध अथवा बीमार श्रमणों को दिगम्बर श्रमणों की तरह स्वयं आहार लेने नहीं जाना पड़ता है वरन् जो दूसरे श्रमण आहार लाते हैं उसमें से वे भी ग्रहण कर लेते हैं। इस परम्परा के श्रमण दिगम्बर परम्परा के श्रमणों की तरह न तो खड़े-खड़े भोजन करते हैं और न ही इनके यहाँ मात्र एक समय ही भोजन करने का प्रचलन है। श्वेताम्बर श्रमण अपने सीमित पात्रों में एक से अधिक बार आहार लाते भी हैं और खाते भी हैं। दिगम्बर परंपरा के श्रमण केवल नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार हो ग्रहण करते हैं / नवधाभक्ति एक विशेष विधि है, जिसमें आहारदाता (श्रावक ) श्रमण को पाद प्रक्षालण, अर्चना, प्रणाम आदि करके आहार देता है।" श्वेताम्बर परंपरा में नवधाभक्ति का ऐसा प्रचलन तो नहीं है, किन्तु इतना तो निश्चित है कि इस परंपरा के श्रमण भी सम्मानपूर्वक दिया गया आहार ही ग्रहण करते हैं। दिगम्बर परंपरा के श्रमण संकल्प या अभिग्रह लेकर आहार के लिए गमन करते हैं जहां उनका . 1. मूलाचार, गाथा 482 2. लिंगपाहुड, गाथा 12-13 3. "अद्धमसणस्स सव्विंजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण / . वाउ संचरणटुं.चउत्थमवसेसये भिक्खू // " -मूलाचार, गाथा 491 4. भगवती आराधना, गाथा 213 . ..... ....... 5. मूलाचार, गाथा 482; आचारवृत्ति, 10.372. . ..