________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्पनी मान्यताएं : 177 की राशि को सचकर नहीं जाए। बर्षा, कोहरे एवं बंधड़ के समय भी श्रमण को भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाना चाहिए।' मूलाचार में भी भिक्षाचर्या के साथ-साथ आहारचर्या का भी उल्लेख हुआ है। बहार: आहार का सामान्य अर्थ भोजन है। भोजन से शारीरिक क्रियाओं एवं चेष्टाओं का संरक्षण होता है / तीन शरीरों ( औदारिक, वैक्रिय और नाहारक ) और छः पर्याप्तियों ( आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ) के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने का नाम अहिार है। - श्रमण की समस्त क्रियाएँ समता से परिपूर्ण होती हैं इसलिए उनका आहार भी सामान्य व्यक्ति से पृथक् होता है। सामान्य व्यक्ति का आहार जीवन निर्वाह के लिए ही होता है जबकि श्रमण का आहार तप, चारित्र और संयम की साधना के लिए भी होता है। श्रमण आहार ग्रहण करते समय आहार-विवेक और आहार को विशुद्धता पर अपनो दृष्टि केन्द्रित रखता है / आहार विवेक श्रमण साधना का प्रमुख अंग है / श्रमण निर्दोष आहार ही ग्रहण करता है। सदोष आहार न श्रमण स्वयं ग्रहण करता हैं, न दूसरों से ग्रहण करवाता है और न ही सदोष आहार ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि इच्छित आहार प्राप्त होने पर श्रमण उसका अहंकार नहीं करे तथा प्राप्त न हो तो शोक नहीं करे। आगम ग्रन्थों में कहा गया है कि माहार देने वाले अथवा ग्रहण करने वाले की भूल से कदाचित सचित्त, दोषयुक्त अथवा अधिक मात्रा में आहार ग्रहण कर लिया हो और श्रमणश्रमणी उस आहार को खाने में असमर्थ हों तो उसे लेकर वे एकान्त स्थान में चले जाएँ और जीव-रहित स्थान का भली-भांति निरीक्षण करके उस स्थान का रज़ोहरण से अच्छी तरह प्रमार्जन करके, यतनीपूर्वक उस आहार को वहाँ परिष्ठापित करदे ( डाळदे ) / ' आचारांगसूत्र के 1. दशवकालिकसूत्र, 5 / 83-90 2. मूलाचार, गाथा 213 3. आचारांगसूत्र, 112 / 5 / 88 .4. वही, 112 / 5 / 89 5. (क) आचारांगसूत्र, 2 // 1 // 324, (ख) दशर्वकालिकासूत्र, 5995-199 12