________________ पंचम अध्याय विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएँ आचार के भेद : . सामान्य रूप से आचार के दो भेद हैं-(.) श्रमणाचार और (2) श्रावकाचार। श्रमण के आचार-नियम श्रमणाचार है तथा श्रावक के आचार-नियमों को श्रावकाचार कहते हैं। जैन साहित्य में सर्वत्र श्रमण और श्रावक के आचार का तो विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है, किन्तु श्रमणी और श्राविका के आचार का उल्लेख कथंचित ही मिलता है। श्रमण-श्रमणो का आचार कुछ बातों को छोड़कर लगभग समान है इसलिये हम यहाँ श्रमणो के आचार का पृथक कथन नहीं करके श्रमण आचार के साथ हो उसका उल्लेख करेंगे और श्रमण के आचार से श्रमणो के आचार में जो क्वचित भिन्नता है, उसका निर्देश यथास्थान कर देंगे। श्रमण का अर्थ: .. “समण' शब्द प्राकृत शब्द है। उसके संस्कृत रूप इस प्रकार हैं(१) श्रमण, (2) समण और (3) शमन / 'श्रमण' शब्द 'श्रम' धातु से बना है, जिसका अर्थ परिश्रम करना है। 'समण' शब्द का अर्थ समता भाव से है तथा 'शमन' का अर्थ अपनी वृत्तियों को शान्त रखना है। इस प्रकार 'श्रम', 'सम' और 'शम' शब्द श्रमण संस्कृति के सार-तत्त्व हैं / आचारांग टोका में कहा गया है-"श्राम्यतोति श्रमणः-तपस्वी' अर्थात् जो श्रम, तपस्या करते हैं, वे श्रमण हैं। श्रमण अनगार, अकिंचन, अपुत्र, निर्मम, अपशु तथा परदत्तभोजो होता है। आचारांगवृत्ति में इन सभी का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है / .. जैनाचार्यों ने श्रमण को अनगार, ऋषि, महर्षि, आर्य, अपरिग्रहो.. 1. आचारांगशीलाङ्गटीका-सं० मुनि जम्बूविजय, पृ० 403 2. वही, पृ० 402 .