________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 167 सर्वार्थसिद्धि में इस व्रत की जो पांच भावनाएँ बतलाई गई हैं उसमें से चार भावनाओं के नाम तो मूलाचार के समान ही हैं, किन्तु मूलाचार में उल्लिखित 'संसक्त वसतिका से विरति' भावना के स्थान पर यहाँ 'स्वशरीर संस्कार का त्याग' यह भावना उल्लिखित है / ' पुनः मूलाचार और राजवार्तिक में इस व्रत की जो पांचों भावनाएँ उल्लिखित हैं, उनके क्रम में भी भिन्नता है। ___ इस व्रत की पांचों भावनाओं के नामों को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में कोई विशेष भेद नहीं है केवल इनके क्रम को लेकर ही क्वचित् भिन्नता दिखाई देती है। परिग्रह परिमाणवत (अपरिग्रह) श्रमण बाह्य एवं अभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है। श्रमण मन, वचन एवं काया से न स्वयं परिग्रह करता है, न दूसरों से परिग्रह करवाता है, न ही परिग्रह करने वालों का अनुमोदन करता है। वैसे श्रमण के लिए अल्प-बहुत्व, सूक्ष्म-स्थूल, सचित्त-अचित्त सभी प्रकार का परिग्रह त्याज्य है, किन्तु आचारांगसूत्र में श्रमण को संयमोपयोगी सीमित उपकरण, यथा-वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन और कटासन (चटाई) रखने की स्वीकृति तो दो गई है लेकिन साथ ही ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि श्रमण को इन धर्मोपकरणों पर भी ममत्व नहीं रखना चाहिए। आचारांगसूत्र में परिग्रह त्याग की प्रेरणा देने के लिए परिग्रह को महाभय का कारण बतलाया है। . दशवकालिकसूत्र में कहा गया है कि श्रमण वस्त्र, पात्र आदि जो धर्मोपकरण रखते हैं, वे संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते हैं इन धर्मोपकरणों को ज्ञातपुत्र (महावीर) ने परिग्रह नहीं कहा है.. वस्तुतः मूर्छा ही परिग्रह है।" दिगम्बर परम्परा में यद्यपि श्रमण को 1. सर्वार्थसिद्धि, 77 2. दशवकालिकसूत्र, 4 / 46 3. आचारांगसूत्र, 1 / 2 / 5 / 89 4. "एतवेगेसि महन्भयं भवति" -आचारांगसूत्र, 115 / 2 / 154 . . .. 5. "न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। "मुच्छा परिम्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।" ... पशवकालिकसूत्र, 20 .