________________ 156 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अतिथि, अचेलक, सचेलक, तपस्वी, साधु, सन्त, मुनि एवं निर्ग्रन्थ आदि अनेक नामों से सम्बोधित किया है। श्रमण दीक्षा: "दीक्षा" का सामान्य अर्थ गृहस्थावस्था का त्यागकर श्रमण-श्रमणी जीवन को अपनाना है। साधक निरन्तर जगत को क्षणभंगुरता, लक्ष्मी, रूप, यौवन और शरीर की चंचलता का विचार करता हुआ आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होता है। साधनारत साधक वैराग्यभाव को प्राप्त कर सर्वप्रथम अपने सगे-सम्बन्धी एवं कुटुम्बीजनों को अपनी वैराग्य भावना प्रकट करके दीक्षा लेने की स्वीकृति मांगता है। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर वह अपने गुरू की शरण में जाता है और अपना वैराग्यभाव प्रकट करके दीक्षा देने का निवेदन करता है। तत्पश्चात् गुरू उसकी वैराग्य भावना की सम्यक् प्रकार से परीक्षा करके, परिजनों की स्वीकृति ज्ञात करके, श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध संघ की आज्ञा लेकर उसे दोक्षा ग्रहण कराते हैं। साधक श्रमण लिङ्ग/मनिवेष धारण करके श्रमण जीवन को प्रतिज्ञा करते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य दीक्षा पाठ इस प्रकार है “करेमि भन्ते ! सामाझ्यं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए पज्जु-वासामि तिविहं तिविहेणं-मणेणं, वायाएणं काएणं न करेमि, न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्सभन्ते ! पडिक्कमामि, निन्दामि, गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।" इस पाठ के द्वारा साधक संकल्प करता है "हे भगवन् ! में सामायिक व्रत ग्रहण करता हूँ। मैं जीवन पर्यन्त मन, वचन और काया से हिंसा आदि समस्त पापों को न स्वयं करूँगा, न दूसरों से करवाऊँगा और न करते हुए का अनुमोदन करूँगा तथा पूर्व में किये गए समस्त पापों की आलोचना, निन्दा और गर्दा करता है और अपनी आत्मा को उनसे विलग करता हूँ।" इस प्रकार साधक इस दीक्षा पाठ के द्वारा दीक्षा ग्रहण करता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में निष्पही साधक को दोक्षा का अधिकारी माना गया है फिर भले ही वह किसी भी जाति या 1. आवश्यकसूत्र, सामायिक अध्ययन