________________ विभिन्न सम्प्रदायों की दर्शन संबंधी मान्यताएं : 145 श्वेताम्बर परम्परा द्वारा भी स्त्रीमुक्ति निषेधक दिगम्बर मान्यता का खण्डन किया जाने लगा। स्त्रीमुक्ति के समर्थन में सर्वप्रथम यापनीय आचार्य शाकटायन (९वीं शताब्दी) ने स्त्रीमुक्ति प्रकरण नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की / शाकटायन ने अपने ग्रंथ "स्त्रीमुक्ति प्रकरण" में स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट समर्थन किया है। शाकटायन के पश्चात् स्त्रीमुक्ति के प्रश्न को लेकर दोनों ही परम्पराओं में पर्याप्त रूप मे पक्ष और प्रतिपक्ष में लिखा जाने लगा / उस समग्र विशयवस्तु की चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है। स्त्रीमुक्ति के पक्ष और निषेध में किन-किन आचार्यों ने अपने मत-विमत प्रस्तुत किए हैं तथा उनका समय क्या था, यह उल्लेख उपादेय होगा। श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र के पश्चात् अभयदेव ( 1000 ई. ), शान्तिसरि ( 5120 ई० ), मलयगिरि ( 1150 ई०), हेमचन्द्र (1160 ई०), वादिदेव (1170 ई०), रत्नप्रभ ( 1250 ई० ), गुणरत्न ( 1400 ई०), यशोविजय ( 1650 ई० ) तथा मेघविजय ( 1700 ई.) ने स्त्रीमुक्ति के पक्ष में विस्तार से लिखा है, दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में आचार्य वीरसेन ( 800 ई०), देवसेन ( 950 ई० ) नेमिचन्द्र (1050 ई०), प्रभाचन्द्र (980-1065 ई०), जयसेन (1150 ई० ) तथा भावसेन ( 1257 ई० ) आदि ने स्त्रीमुक्ति निषेध के लिए अपनी लेखनी चलाई है। .. श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्राचीन आगम साहित्य में 'स्त्रो मुक्त होती है। ऐसे उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें कहीं भी उसका तार्किक प्रतिपादन नहीं हुआ है। स्त्रीमुक्ति के निषेध का सर्वप्रथम तार्किक प्रतिपादन कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलता है / कुन्दकुन्द का कथन है कि जिनशासन में वस्त्रधारी सिद्ध नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थंकर हो क्यों न 1. दृष्टव्य है-स्त्रीमुक्ति प्रकरण, जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय 2. अस्ति स्त्री निर्वाणं पुंवत्, यद विकल हेतुकं स्त्रीषु / न विरुध्यति हि रत्नत्रयसंपद निर्वतेर्हेतुः // ___ -स्त्रीमुक्तिप्रकरण, श्लोक 2 (शाकटायन-व्याकरण, पृ० 121) 3. Jaini Padmanabh-Gender and Solvation, P. 4 . 10