________________ *62 : जैनधर्म के सम्प्रदाय ( करहाटाक्ष ) के राजा भूपाल की पत्नी रानी नपुलादेवी ने एक बार राजा से कहा कि मेरे पैतृक नगर से आए हुए आचार्यों को आप आदरपूर्वक अपने यहाँ आने का निवेदन करें। राजा का निमन्त्रण प्राप्त कर जब आचार्यगण नगर में पधारें तो राजा ने देखा कि वे साधु सवस्त्र हैं और उनके पास भिक्षा पात्र और दण्ड भी है। यह देखकर राजा ने उन्हें अनादारपूर्वक लौटा दिया। जब रानी नुपुलादेवी को यह सब वृत्तांत ज्ञात हुआ तो उसने उन मुनियों से पिच्छी-कमण्डलु लेकर नगर में प्रवेश करने की प्रार्थना की / साधुओं ने रानी की प्रार्थना स्वीकार करके तदनुरूप दिगम्बर मुद्रा धारणा की और नगर में प्रवेश किया। इस प्रकार आचार की दृष्टि से दिगम्बर और सिद्धान्त रूप में श्वेताम्बर-इन्हीं साधुओं से यापनोय संघ का प्रादुर्भाव हुआ। यापनोय सम्प्रदाय की उत्पत्ति संबंधी मान्यताओं का निष्कर्ष : यापनीय सम्प्रदाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में जो कथानक प्रचलित हैं, उनका हमने यहाँ उल्लेख किया है। यद्यपि उनसे यह निष्कर्ष तो नहीं निकलता कि यापनीय सम्प्रदाय की उत्पत्ति श्वेताम्बर सम्प्रदाय से हुई अथवा दिगम्बर सम्प्रदाय से, किन्तु इन कथानकों के आधार पर यह अवश्य ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों को उत्पत्ति के साथ हो जैन धर्म की इस तोसरो शाखा "यापनीय सम्प्रदाय" का भी प्रादुर्भाव हो चुका था। प्रारम्भ में संभवतः यापनीय सम्प्रदाय ने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर इन दोनों धाराओं को जोड़ने का प्रयास किया होगा, किन्तु इसमें सफलता नहीं मिलने पर यह शाखा एक तीसरे संप्रदाय के रूप में ही पहचानी जाने लगी। जिस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों संप्रदाय कई उप-सम्प्रदायों में विभाजित हो गए, उसी प्रकार यह संप्रदाय भी कई उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया / अब हम श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यापनीय-इन तोनों संप्रदायों के विभिन्न उपसंप्रदायों के उपलब्ध विवरण प्रस्तुत करेंगे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के उपसम्प्रदाय : १७वीं शती के लगभग श्वेताम्बर संप्रदाय में मूर्तिपूजक एवं अमूर्तिपूजक ऐसी दो परंपराएं विकसित हुई हैं। तीर्थंकरों को मूर्तियाँ स्थापित करवाकर उनकी पूजा-अर्चना आदि पर बल देने वाला वर्ग मूर्तिपूजक