________________ विभिन्न सम्प्रदायों की. दर्शन संबंधी मान्यताएं : 129 क्रियाएँ मनुष्य की हैं उसी तरह की क्रियाएँ वनस्पति आदि जीवों की भी हैं। जैन दर्शन जीव को चैतन्य तो मानता हो है, परन्तु उसे ज्ञानस्वरूप भी मानता है / जैन परम्परानुसार ज्ञान और आत्मा एक हो हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। आगमों एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में भी इसी बात पर बल दिया गया है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि आत्मा ज्ञान है, ज्ञान से अलग आत्मा नहीं है / जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सब कुछ जान लेता है। जीव तत्त्व का विवेचन करते हुए पंचास्तिकायसार में लिखा है-जो तत्त्व चेतना-स्वरूप है, ज्ञानवान है, सभी को जानता-देखता है और सुखदुःख का अनुभव करता है, वह जीव है। जीव ज्ञान और दर्शन स्वरूप है। ज्ञान और दर्शन जीव के गुण भी हैं और स्वभाव भी। किसी भी जीव का अस्तित्व इनके अभाव में नहीं रह सकता। जैसे नीम का गुण कड़वापन है, सूर्य का गुण प्रकाश एवं उष्णता तथा पानी का स्वभाव शोतलता है, वैसे ही जीव का स्वभाव ज्ञान और दर्शन है। जीव से ये भिन्न नहीं हैं। :: जैन दर्शन के अलावा नेयायिक आदि अन्य दार्शनिक मतों में जीव और ज्ञान को पृथक्-पृथक् माना गया है। उनके मतानुसार जोव और ज्ञान अलग-अलग हैं। जीव में ज्ञान आता है इसलिए ज्ञान जीव का आगन्तुक गुण है, किन्तु जैन दर्शन इस मत का खण्डन करता है। कुन्दकुन्द प्रवचनसार में स्पष्ट कहते हैं कि ज्ञान के बिना आत्मा नहीं है और आत्मा के बिना ज्ञान नहीं है / ज्ञान आत्मा है और आत्मा ज्ञान है। जीव. स्वरूपतः ज्ञान-दर्शनमय है, इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर . दोनों परम्पराएँ एकमत हैं, किन्तु जीव के कर्ता-भोक्ता स्वरूप को लेकर जैनों में मतभेद पाया जाता है। . दिगम्बर ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह में कहा है-जीव उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता-भोक्ता है, सदेह परिमाणवाला है, संसारस्थित है, सिद्ध होने को 1. आचारांगसूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 1, उद्देशक 5 2. वही, प्रथम श्रुतस्तान्ध 3. पंचास्तिकायसार, गाथा 122 4. प्रवचनसार, गाथा 2 / 27