________________ 132 : जैनधर्म के सम्प्रदाय वाद-विवाद और लेखन भी नहीं हुआ है। फिर भी यह मान्यता भेद तो . स्पष्ट रूप से है / श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय ने न केवल स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग और गृहस्थों की मुक्ति को स्वीकार किया है, वरन उन्होंने तो यहाँ तक स्वीकार किया है कि अन्य धार्मिक परम्पराओं के लोग भी मुक्त हो सकते हैं / श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्रसूरि ने तो स्पष्ट कहा है कि जो भी व्यक्ति राग-द्वेष से ऊपर उठकर समभाव की साधना करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी परम्परा को मानने वाला हो।' निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि सिद्धों के संबंध में जितना उदार दृष्टिकोण श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा का रहा है उतना उदार दृष्टिकोण दिगम्बर परम्परा का नहीं रहा है। दिगम्बर परम्परा की तो यह स्पष्ट घोषणा है कि केवल दिगम्बर मुद्रा (नग्नत्व) धारण करने वाला ही मुक्ति का अधिकारी है, अन्य कोई नहीं। . .. प्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण का प्रश्न : श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं जीव तत्त्व का वर्गीकरण त्रस एवं स्थावर के रूप में करती हैं। यद्यपि वर्तमान काल में दोनों ही परम्पराएं षट्जीवनिकाय के पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-ये छः विभाग करके उनमें से पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय पर्यन्त पांच को स्थावर और अंतिम को त्रस मानती हैं। किन्तु प्राचीन आगमों में षट्जीवनिकाय के वर्गीकरण की एक भिन्न अवधारणा भी मिलती है, जहाँ पृथ्वो, अप और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु और त्रस जीव को त्रस के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। बाचारांगसूत्र में षट्जीवनिकाय का उल्लेख तो हुआ है,किन्तु उनका 1. संबोध प्रकरण, गाथा 113 2. सूत्रपाहुड, गाथा 23 3. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, 26 // 31 (ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 175-177 की टीका (ग) मूलाचार, गाथा 205 4. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, 36 / 69, 107 (ख) तत्त्वार्थसूत्र, 2013-14