________________ 138: जैनधर्म के सम्प्रदाय की यह संश्लिष्ट अवस्था ही बंधन है। यद्यपि निह्नवों के काल में ही यह विवाद खड़ा हो गया था कि कर्मवर्गणाओं के पुद्गल आत्मद्रव्य से. संश्लिष्ट होकर रहते हैं या उसका स्पर्श मात्र करते हैं। यह चर्चा हम' गोष्ठामहिल निह्नव की चर्चा करते समय पूर्व के पृष्ठों में कर चुके हैं। दिगम्बर परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ समयसार में आत्मा और कर्म के संबंध को लेकर जो विस्तृत चर्चा की है उससे फलित होता है कि निश्चयनय की अपेक्षा से वे यही मानते हैं कि आत्म द्रव्य और कर्मद्रव्य कभी भी संलिष्ट नहीं हो सकते हैं। आत्मा सदैव आत्मा रहता है और कर्म सदैव कर्म ही रहता है। कुन्दकुन्द का यह दृष्टिकोण बहुत कुछ अबद्धिकवाद के समान ही है। आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में तो बंधन की सारी कल्पना भी व्यावहारिक ही है, किन्तु इस संबंध में कुन्दकुन्द के अतिरिक्त श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं के आचार्यों में कोई मतभेद नहीं है, वे सभी एकमत से आत्मा और कर्म का संश्लिष्ट संबंध मानते हैं। कर्म प्रकृतियों में पुण्य और पाप प्रकृतियों का प्रश्न : श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परंपराएँ कर्मों की ज्ञानावरणादि आठ कर्म प्रकृतियाँ मानती हैं। कम प्रकृतियों के नाम और संख्या को लेकर उनमें कोई विवाद नहीं है। जहाँ तक मूल प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों का प्रश्न है, उस संबंध में भी दोनों में कोई भेद नहीं है / आठों कर्मों में से प्रत्येक कर्म को उत्तर प्रकृतियाँ कितनी हैं, इसे निम्न रूप से अभिव्यक्त किया जा सकता है। मति आदि पाँच ज्ञानों के आवरण ज्ञानावरण है। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन-इन चारों के आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और सत्यानगृद्धि रूप पाँच निद्राएं-ये नौ दर्शनावरणीय हैं / प्रशस्त (सुखवेदनीय) और अप्रशस्त (दुःखवेदनीय) ये दो वेदनोय हैं। मोहनोय क कुल अट्ठाईस भेद हैं। नारक, तियंच, मनुष्य और देव-ये चार आयु के भेद हैं। गति आदि बयालीस नामकर्म हैं / उच्च और नीच-ये दो गोत्रकर्म हैं तथा दान आदि पाँच अन्तराय कर्म के भेद हैं।' ___ जहाँ तक इन उत्तर प्रकृतियों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर 1. तत्त्वार्थसूत्र, 816-14