________________ 140 : जैनधर्म के सम्प्रदाय जैन दर्शन की परमात्मा विषयक मान्यता सभी दर्शनों से भिन्न है। -जैन दर्शनानुसार परमात्मा न तो जगत का कर्ता है और न ही भोक्ता है, अपितु वह तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने राग-द्वेष से रहित, मोह-माया का नाश करने वाले, परमपद को प्राप्त करने वाले, चौंतीस अतिशय रूप ऐश्वर्य के धारक केवलज्ञानी वोतरागी परमात्मा को ईश्वर की संज्ञा दी है।' __आचार्य कुन्दकुन्द ने परमात्मा को समस्त दोषों से रहित एवं केवलज्ञान आदि गुणों से युक्त माना है। जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर विशुद्ध आत्मा है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा रूप बनने की शक्ति है। विष्णु, परमब्रह्म, ईश्वर, सुगत, शिव और जिन इत्यादि सभी उसके ही नाम हैं। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में ईश्वर के एक हजार आठ नामों का उल्लेख किया है। जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों एवं उपसंप्रदायों में परमात्मा विषयक मान्यता को लेकर कोई मतभेद नहीं है। सभी सम्प्रदाय कर्म बंधनों से विमुक्त आत्मा को परमात्मा मानने में एकमत हैं। मोक्षः मोक्ष जीव की उस अवस्था का नाम है, जहाँ न जन्म है न मरण / जन्म-मरण से रहित यह अवस्था बंध के कारणों के अभाव और कर्मों की पूर्ण निर्जरा से प्राप्त होती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने समस्त कर्मों के क्षय का नाम मोक्ष बतलाया है। आत्मा के स्वभाव से कर्म प्रकृतियों का छूट जाना भी मोक्ष है। मोक्ष सुखात्मक होता है। जैन दर्शन में मोक्ष प्राप्ति के उपाय हेतु रत्नत्रय की साधना पद्धति है। रत्नत्रय की साधना से अभिप्राय है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आराधना / 1. षडदर्शनसमुच्चय (आचार्य हरिभद्रसूरि), पृ० 162-163 2. (क) मोक्षपाहुड, गाथा 5 (ख) नियमसार, गाथा 7 3. वृहद्रव्यसंग्रह, संस्कृत टीका, गाथा 14 4. आदिपुराण, पर्व 4, पृ० 72 5. तत्त्वार्थसूत्र, 10 // 3 6. तत्त्वार्थवार्तिक, भट्टअकलंकदेव, भाग 2, पृ० 697 17. नयचक्र, 159; उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3, पृ० 332-333