________________ 128 : जैनधर्म के सम्प्रदाय . . . 2. सूत्र में उल्लिखित "आदि" शब्द से तीन आदि गुण अर्थ लिया जाए अथवा नहीं? 3. केवल सदृश परमाणुओं का बन्ध माना जाए अथवा नहीं? . श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दोनों परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनका बन्ध निषिद्ध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्य गुणवाला हो और दूसरा अजघन्य गुणवाला, तो उनका बन्ध हो सकता है, किन्तु, दिगम्बर परम्परा में सर्वार्थसिद्धि टीका में यह माना गया है कि जिस प्रकार जघन्यगुणयुक्त दो परमाणुओं में परस्पर बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता है। तत्त्वार्थसूत्र के पांचवें अध्याय के ३५वे सूत्र में उल्लिखित "आदि" पद का अर्थ श्वेताम्बर परम्परा में दो या दो से अधिक किया जाता है। इसलिए उसमें किसी एक परमाणु का दूसरे परमाणु से स्निग्धत्व या रूक्षत्व के गुणो में दो या दो से अधिक अंशों का अन्तर होने पर बन्ध माना जाता है, परस्पर केवल एक अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता, किन्तु दिगम्बर परम्परानुसार केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक अंश की तरह तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता। तत्त्वार्थसूत्र के ६५वें सूत्र की भाष्य और वृत्ति के अनुसार दो, तीन आदि अंशों में अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश परमाणुओं पर ही लागू होता है। यहाँ सदृश का तात्पर्य स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध होना है, किन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में यह विधान सदश की तरह विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है। यहाँ विसदृश का अर्थ स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होना है। स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं के सन्दर्भ में श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता में यह अन्तर तो है अन्यथा पुद्गल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानने में दोनों परम्पराएं एकमत हैं। जीव: जैन दर्शन में जीव तत्त्व का सूक्ष्मतम विवेचन किया गया है / आगमों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिप्रत्येक का जन्म होता है, प्रत्येक की वृद्धि होती है, प्रत्येक छिन्न होने पर कुम्हलाते हैं, प्रत्येक आहार की इच्छा करते हैं तथा जिस तरह की