________________ 124 : जैनधर्म के सम्प्रदाय परम्परा द्वारा मान्य प्राचीन ग्रन्थों में सात तत्त्वों की चर्चा हो प्रमुख रहो है। तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बर टीकाओं को छोड़कर प्रायः सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने पुण्य-पाप को स्वतन्त्र गणना करते हुए नौ तत्त्व हो माने हैं। . इसके विपरीत तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण करते हुए प्रायः सभी दिगम्बर आचार्यों ने पुण्य और पाप को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना है और उनका अन्तर्भाव आस्रव तत्त्व में ही करके उन्होंने सात तत्त्वों का ही प्रतिपादन किया है। यद्यपि प्राचीन आगमों के अनुसरण के कारण कुन्दकुन्दप्रभृति कुछ आचार्यों ने नौ तत्त्वों का उल्लेख किया है। सामान्य रूप से हम कह . सकते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा नौ तत्त्व मानती है, वहीं दिगम्बर परम्परा सात तत्त्व मानती है। यह एक सामान्य कथन है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दिगम्बर परम्परा नौ तत्त्वों की अवधारणा की तथा श्वेताम्बर परम्परा सात तत्त्वों की अवधारणा को पूर्णतः विरोधी है। क्योंकि जो आचार्य सात तत्त्व मानते हैं वे भी आस्रव के भेद के रूप में पुण्य और पाप को तो मानते ही हैं। ___एक ओर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य को स्वीकार करने के कारण जहाँ तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर टोकाकारों ने सात तत्त्वों का भी उल्लेख किया है वहीं दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में यापनीयों के माध्यम से आगमों के अनुसरण के कारण कहीं-कहीं नौ तत्वों का उल्लेख भी हुआ है। तत्त्वों की सात और नौ की संख्या का यह मतभेद तो अपनी जगह है ही, किन्तु हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि सात और नौ तत्त्वों की मान्यता के इस अन्तर की दार्शनिक समस्या क्या है ? यह -सत्य है कि पुण्य और पाप दोनों ही आस्रव रूप हैं, इसीलिए उनको आस्रव से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व मानना आवश्यक नहीं है, संभवतः इसी कारण दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानकर उनका अन्तर्भाव आसत्र में ही किया है और इस प्रकार उन्होंने -सात तत्त्वों की अवधारणा को स्वीकारा है। इसके विपरीत नौ तत्त्वों को मानने वाली श्वेताम्बर परम्परा का कहना यह है कि पुण्य और पाप केवल आस्रव नहीं है, उनका बन्ध भी होता है और विपाक भी। यदि "हम आस्रव में पुण्य-आस्रव और पाप-आस्रव ऐसे दो विभाग करते हैं तो फिर हमें बन्ध में भी पुण्य-बन्ध और पाप-बन्ध ऐसे दो विभाग करने होंगे। इसी प्रकार विपाक में भी पुण्य-विपाक और पाप-विपाक के भेद