________________ 122 : जैनधर्म के सम्प्रदाय वर्तमान में जब हम दर्शन शब्द को फिलॉसफी ( Philosophy) के अर्थ में लेते हैं तो वहां वह दृष्टि का हो पर्यायवाची है, क्योंकि जीवन और जगत के सम्बन्ध में व्यक्ति के दृष्टिकोण को हो दर्शन कहा जाता है। प्रस्तुत अध्याय में हम दर्शन शब्द का प्रयोग इसी सोमित अर्थ में कर रहे हैं और केवल तत्त्वमीमांसा संबंधी चर्चाओं को हो इसके अन्तर्गत ले रहे हैं / ज्ञातव्य है कि आगे चलकर जैन आचार शास्त्र में दर्शन शब्द . श्रद्धा या आस्था हो गया है। सम्यग्दर्शन में दर्शन शब्द श्रद्धा परक अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञान के द्वारा तत्त्व को जानें और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। इस प्रकार परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द सम्यक्-दर्शन के रूप में श्रद्धा या भक्ति का पर्यायवाची बन गया और यह माना जाने लगा कि देवगुरु और धर्म के प्रति सम्यक श्रद्धा होना हो सम्यक्-दर्शन है। इस अर्थ में दर्शन शब्द तत्त्व ज्ञान का विषय नहीं होकर साधना या आचार का विषय बन गया। प्रस्तुत अध्याय मे हमने इसके साधनागत अथवा श्रद्धागत स्वरूप को नहीं, अपितु तत्व. मीमांसोय अर्थ को ही ग्रहण किया है। यहां हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएं क्या हैं ? तत्त्व की संख्या का प्रश्न : जैन दर्शन में मूलतः दो ही तत्त्व माने गए हैं-१. जीव तत्त्व और 2. अजोव तत्व / किन्तु जोव और अजोव तत्त्व के सम्बन्ध को लेकर उनसे जो भिन्न अवस्थाएं बनती हैं, उस दृष्टि से विचार करने पर कुछ जैन आचार्यों ने नौ तत्त्वों का प्रतिपादन किया। उत्तराध्ययन आदि श्वेताम्बर परम्परा मान्य ग्रन्थों में नौ तत्त्वों का हो उल्लेख मिलता है / किन्तु उमास्वाति से प्रारम्भ करके परवर्ती जैन आचार्यों विशेष रूप से 1. "नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे ।"-उत्तराध्ययनसूत्र, 28335 2. सामायिकसूत्र-सम्यक्त्व पाठ 3. (क) स्थानांगसूत्र, 2 / 1 (ख) प्रवचनसार, 2 / 35 4. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, 28314, (स) मूलाचार, मादा 203 (ग) समयसार, गाथा 13 (घ) पंचस्तिकाम, माथा 108